कुछ ढका कुछ छुपा सा
गुमसुम बूंदों से तरा सा
झुरमुट मेघो से घिरा सा
शायद ............कोई
दिल में छुपा दर्द रहा
जो, कभी बह ना सका
बस, चहरे पे उमड़ गया....
कीर्ती वैद्या ....११/१२/2008
अपने आस-पास जो महसूस करती हूँ.....शब्दो में उन्हे बाँध देती हूँ....मुझे लिखने की सारी प्रेणना, मेरे मित्र नितिन से मिलती है.... शुक्रिया नितिन, तुम मेरे साथ हो....
कुछ ढका कुछ छुपा सा
गुमसुम बूंदों से तरा सा
झुरमुट मेघो से घिरा सा
शायद ............कोई
दिल में छुपा दर्द रहा
जो, कभी बह ना सका
बस, चहरे पे उमड़ गया....
कीर्ती वैद्या ....११/१२/2008
एहसासों के ताने बाने लिपटे
चाँद तारो को एकटक तकते
बिन कदमो बिन आहाटो के
मीलो दूर बेवजह घुमे आये
सुबह, सब बिखरी औंस देखे
हम अपने खोये आंसू पर हँसे.....
कीर्ती वैद्य....11th nov'08
सुना और परखा
हाँ....सही
सच, कड़वा था
खिड़की से झांकता
मुँह चिडाता सा
पर .... हाँ
इक और सच था
ये कड़वा, मीठा लगा
सब ...जैसे
बन्धीशो से मुक्त था
ना थी कोई बेचेनिया
ना कोई इंतज़ार रहा
खुल गया, हाँ पिंजरा
उड़ा रहा अब मनवा
दफ़न कुछ था, रहा
बिफरा, पर फर्क था
अब ... आज
आंसू भी मीठा लगा....
कीर्ती वैदया ०९ जुलाई 2008
अक्सर सोचा करते है, तुम्हे
सुबह-शाम .... सोते - जागते
डायरी को शब्दों से भरते
कभी....किसी किताब के
पन्नो को पलटते - पलटते
उड़ती नीली-पीली पतंगों के
धागों से उलझते हो, सोच में
सोचते है ...क्यों सोचते है सोचते
जंगली कंटीले बेंगनी फूलो से
अक्सर चुभ जाते हो, सोच में
कई बार सोचा....दूर रखे तुम्हे
इस बेमतलबी सोच के दायरों
से गर्म हथयलियो पर बर्फ पिघले
ऐसा कुछ महसूस कर रुक जाते
टिमटिमाते दियो को इकटक देखे
तो ना जाने क्यों आंसू बन छलक जाते
सोचते है....क्या तुम भी सोचेते हो
जैसे हम सोचते है, हर घडी तुम्हे ......
कीर्ती वैद्य 08 JULY 2008
सोच....बहुत हद तक ले डूबे
कभी ....
मन के अंधियारे गलियारों के
अनजान रास्तों के फेरे काटे
कभी ....
निर्झर झरने के नीर सी भागती जाए
राह की चट्टानों से टकरा, छलक जाए
कभी....
नील अम्बर को बन पतंग छुना चाहे
कटने के डर से धरा का रुख कर जाए
कभी ......
नटनी बन सुतली पर कलाबाजी खाए
चोट के भय से बच्चों सी तड़प जाए
हाँ, इक सोच ना जाने कितने आसमां दिखाए
कीर्ती वैद्य .......09 june 2008
कीर्ती वैद्य....1st April 2008
अपनी ४ बहुओ की लाडली सास। जब भी उनकी कोई भी बहु गरभती होती तों उसके हजारो नखरे सर आंखो पर उठाती ।
कभी उनके सर तेल डालती कभी उनकी रूचि का खट्टा - मीठा पकवान बनाती ।
बच्चे के जनम के समय हमेशा सब से आगे हॉस्पिटल में खड़ी रहती ..कोई समस्या तों नही ....सब ठीक तों हैना डॉक्टर जी।
तभी एक नर्स लेबर रूम से चिल्लाती आती है "माता जी लड़की हुई है" ......और माता जी का पीला चेहरा और वो शब्द " ओह ...लड़की हुई है "
न जाने क्यों यह शब्द मुझे हमेशा उनसे बहुत दूर खींच ले जाते, ऐसा लगता की उन्होने मुझे और अपने को भी गाली दी है।
क्या सच में लड़की का होना अपराध है ? क्या एक औरत को दूसरी औरत का नव स्वागत ऐसे करना चाहिए ?
क्यों लड़कियों और लड़को की परवरिश में भी फर्क रखा जाता है जबकि दोनों एक ही घर के बच्चे है , लड़का होता है तों ढोल पीते जाते है पूरे शहर का मुँह मीठा किया जाता है और अपनी ही बेटी के जन्म पर अपना ही मुँह खट्टा हो जाता है।
देश प्रगति की रहा पर है, शिकषित लोगो की संख्या बढ़ रही है पर हमारी सबकी सोच अब भी वंही के वंही थकी और बीमार पड़ी है ।
कीर्ती वैद्य .....
हाँ, इक दिन वो आयेगा
जब हम मिलेंगे...
इक गर्म चाय के संग,
हम बातो मैं घुल जाएँगे.
कुर्मुरे चिप्स चटकाते,
करीब थोरा ओर आ जाएँगे.
कोसी-कोसी धुप तले,
प्रेम-प्रीत में भर जाएँगे
ठंडे पानी के गिलास संग,
मीठे सपने संजो लेंगे.
तंग भरी सड़क पे चलते-चलते,
हम भि ज़िन्दगी पकड़ लेंगे.
भुट्टे का नींबू-मसाला चख
अपना भि घर बसा लेंगे
हाँ, इक दिन वो आयेगा
जब हम मिल जाएँगे.....
कीर्ती वैद्य.....
अक्सर लोग चेहरे बदल-बदल
अपनी तस्वीरे खीन्च्वाते है
रंगीन फ्रेम में चढा उन्हे
दीवारों पर लटकाते है
बेवजह उनपर नज़र दौडा
अपनी बेवाकुफियो पे हंसते है
अरे, कोई समझाए इन्हे
वो इस तरह का नाटक कर
अपना ही ड्रामा क्यों रचते है
लटकाना ही है तो लटका दो
थके हुए समाजिक ढांचे को
लाचार पडे, कानून को
इक रोटी के टुकडे के लिए
नचाते अपने नेताओ को
मासूम बचपन छीनते
जेब गरमाते उध्यमियो को
अरे.... सच कहती हूँ
लटका दो ऐसे लाचारों को
शायद फिर सच मज़ा आयेगा
उन्हे देख मुस्कुराने का
अब अपनी नहीं,
उनकी बेवाकुफियो पे हंसने का .....
कीर्ती वैद्य....