9 July 2008

कड़वा सच ....

सुना और परखा

हाँ....सही

सच, कड़वा था

खिड़की से झांकता

मुँह चिडाता सा

पर .... हाँ

इक और सच था

ये कड़वा, मीठा लगा

सब ...जैसे

बन्धीशो से मुक्त था

ना थी कोई बेचेनिया

ना कोई इंतज़ार रहा

खुल गया, हाँ पिंजरा

उड़ा रहा अब मनवा

दफ़न कुछ था, रहा

बिफरा, पर फर्क था

अब ... आज

आंसू भी मीठा लगा....

कीर्ती वैदया ०९ जुलाई 2008

1 comment:

राजीव तनेजा said...

सही है...सच ज़्यादातर कड़वा ही होता है...

लिखती रहें