9 June 2008

सोच

सोच....बहुत हद तक ले डूबे

कभी ....
मन के अंधियारे गलियारों के
अनजान रास्तों के फेरे काटे

कभी ....

निर्झर झरने के नीर सी भागती जाए
राह की चट्टानों से टकरा, छलक जाए

कभी....
नील अम्बर को बन पतंग छुना चाहे
कटने के डर से धरा का रुख कर जाए

कभी ......
नटनी बन सुतली पर कलाबाजी खाए
चोट के भय से बच्चों सी तड़प जाए

हाँ, इक सोच ना जाने कितने आसमां दिखाए

कीर्ती वैद्य .......09 june 2008

6 comments:

रश्मि शर्मा said...

हाँ, इक सोच ना जाने कितने आसमां दिखाए
bilkul sach.wah

Anonymous said...

bahut sundar

vijaymaudgill said...

kirti बहुत बढ़िया कविता और उसके साथ सोच भी अच्छा लगा पढ़कर। वैसे ये कविता और भी बड़ी लिखी जा सकती थी। इसमें और बहुत कुछ किया जा सकता था। क्योंकि सोच की कोई सीमा नहीं होती। अच्छा लगा पढ़कर
शुभकामनाओं सहित

रजनी भार्गव said...

बहुत अच्छी है।

सोनाली सिंह said...

अच्छी सोंच है,मेरा मतलब अच्छी कविता है!शुभकामनाओं सहित.....

Unknown said...

....good lines Keerti (lines of dis poem).....keep it up..........