7 April 2008

मैं कौन ...


आज भि यही सवाल मेरे ज़हन
ढूँढ रही ना जाने कब से, मैं कौन?

शायद वो...
जो गुडयिया से घर-घर खेले
नाक -चश्मा, काँधे बस्ता
कच्ची सड़क नाप, सकूल पहुँच जाये
रोज़, ढूध इक सांस में गटक
घंटो साईकल लिए फिरे

शायद वो....
गीतों के धुन पे मोरनी बन नाचे
कटी पतंगो,कभी तितलियों के पीछे भागे
रोज़ घुटने कभी कोहनी चोट खाये
माँ की डांट पर कोने बैठ मुँह फुलाये
बहना से लड़ उसकी टोफ्फी चुरा खाये

शायद वो...
चोरी से सिगरेट के छल्ले बनाना सीखे
कभी बियर के बोतलों में ज़िन्दगी ढूंढे
कभी इक सांस में मंदिर की सीढिया चढ़े
कभी सालो इश्वर को अपने में ही ढूंढे

शायद वो...
बिन परवाह किये बिन सब बंधन तोड़ दे
अपनी हथेली सजी मेहंदी को ही रोंद दे
कभी बन पहाड़ घर-परिवार संभाले
कभी शोला बन दुनिया फूंक डाले ..

शायद वो...
इंसानी रिश्तो को बारीकी से समझे
कभी उन्ही रिश्तो में छली जाये
आधी अधूरी ज़िन्दगी को हाथो में समेटे
कभी दुनिया को अलविदा कह जाये

फिर भि अब तलक ना पता
मैं कौन ... ?

कीर्ती वैद्य ....०५ अप्रैल २००८

4 comments:

Anonymous said...

har shaks ko yahi sawal hota hai,bahut hi achhi kavita,shayad bachpan ke gudiya wale din hi achhe hai.

Krishan lal "krishan" said...

सवालो मे उलझ के रह ना जाये जिन्दगी तेरी
इस मकड़ जाल से तुझे पीछा छुड़ाना चाहिये
जिन्दगी का फलसफा क्या कीजियेगा जानकर
बन्दे को बस जिन्दादिली से जीना आना चाहिये

कीर्ति जी बहुत अच्छी कविता एक सृष्टि के साथ जन्मे सवाल पर लेकिन इसे कविता तक ही रहने दे तो बेहतर

कुश said...

इंसानी रिश्तो को बारीकी से समझे
कभी उन्ही रिश्तो में छली जाये
आधी अधूरी ज़िन्दगी को हाथो में समेटे
कभी दुनिया को अलविदा कह जाये


बहुत ही सुंदर रचना.. बधाई स्वीकार करे

कंटीला said...

बहुत व्यथित जान पड़ती हैं आप। अपने ही ख्यालों मैं उलझी स्वयं की पहचान तक भूला बैठी हैं। आप भावनाओं के जिस द्वन्द से गुजर रहीं हैं उसको समझाने का प्रयास करती एक रचना प्रकाशित कर रहा हूँ। कुछ मददगार हो सकी तो धन्य समझूंगा।