24 April 2008

जब तू ही....


कया गाऊं अब कया गुनगुनाऊ,
जब तू ही मुझे भुला बैठा.
बुझे बेजान लगते सारे रंग,
जैसे कफ़न की बर्फ जमी हो.
रोशनियाँ भी सागर के लहरों सी,
रोती चीखती टकरा गुज़र जाए.
ढलते सूरज का मुखड़ा तो देखो,
बिस्तर पडे रोगी सा दिखता.
शहर भी शाम ढले, अब कोने छुपा,
अपनी बेबसी पर रोता मिल जाता.
मौसम भी अब कर तेरा इंतज़ार,
अपना श्रृंगार कब का भूल बैठा.

कीर्ती वैद्य ...२३ अप्रैल 2008

4 comments:

Anonymous said...

bahut khubsurat

Krishan lal "krishan" said...

har trah se man par chhaa jane vaali kavitaa. is kaa bhaav paksh shabdo kaa chayan sab utam hai

Bahut hii parbhavshaali rachnaa.

Is kavitaa kaa ek ek shabd apane saath bahaa le jaane kaa saamarthya rakhta hai.

Aap ne aaj rula diyaa kirti ji

Badhaai doo yaa dantoo samajh nahi aa rahaa hai

said...

वैसे कवितायें अपनी समझ से परे हैं :)
फ़िर भी अच्छी रचना है ..
सौरभ

Faceless Maverick said...

"रोशनियाँ भी सागर के लहरों सी."
लौटती रौशनी के बारे में पहले कभी नही सोचा था. सच में, यह सागर की लहरों जैसी ही होतीं हैं.
बहुत खूब!