11 April 2008

सिन्दूर

कबर की कच्ची दीवारों में दफनाया जा रहा था
बिन पूछे ही उसकी साँसों को दबाया जा रहा था
रस्सी बंधा तन मछली सा छटपटाया जा रहा था
पिहर की यादो से अंखिया छलकाया जा रहा था
कोख में मेहमान की चिंता में पिघला जा रहा था
हफ्तो से भूखे तन में भि ज़िन्दगी मांगे जा रह था
पीले पड़ते चेहरे से मेरी गलती कया पूछे जा रह था
टूटती हर संवाद्नाओ में भि आस पकडे जा रह था
आज, अपना ही सिन्दूर लो उसे मिटाए जा रहा था......

कीर्ती वैद्य.....०६ अप्रैल २००८

7 comments:

Anonymous said...

bhavna se bhari dard ko bayan karti bahut khub

Yugal said...

बहुत अच्छी कही

राजीव तनेजा said...

दर्द से भरी भावनाओं को व्यक्त करती आपकी कविता पसन्द आई....

बस कुछ स्पैलिंग मिस्टेक्स का ध्यान रखा करें तो बेहतर होगा

अमिताभ said...

bahut umda !!

Anonymous said...

bahut sashakt haen
but
aap sab kii umar mae woh kavitaaye aaye jo naari kee safaltaa ko dikhaye , ghutan liknae kae liyae 79-80 dashak kii mahilla haen
tum sab ko zameen unhonaey dee haen ab tum is ghutan ko kyon vyakt kartee ho
woh kavitaaye likho jhaan jindii jeettee haen
aur
yae kaviya bahut achichi hae is mae koi shak nahin haen
tumahri didi
rachna

Krishan lal "krishan" said...

कीर्ति जी
कु्छ कुछ समझ आ रहा है
दर्द कहाँ से और क्यो
लावा बन के बाहर आ रहा है

बहुत ही सुन्दर दिल पे प्र्भाव छोड़ती कविता

Krishan lal "krishan" said...

बाहर ही दिख रहा है जब दर्द का सैलाब इक
स्त्रोत में क्या होगा ये सोचा भी नहीं जा रहा है




सीधे दिल को छूने वाली कविता