कबर की कच्ची दीवारों में दफनाया जा रहा था
बिन पूछे ही उसकी साँसों को दबाया जा रहा था
रस्सी बंधा तन मछली सा छटपटाया जा रहा था
पिहर की यादो से अंखिया छलकाया जा रहा था
कोख में मेहमान की चिंता में पिघला जा रहा था
हफ्तो से भूखे तन में भि ज़िन्दगी मांगे जा रह था
पीले पड़ते चेहरे से मेरी गलती कया पूछे जा रह था
टूटती हर संवाद्नाओ में भि आस पकडे जा रह था
आज, अपना ही सिन्दूर लो उसे मिटाए जा रहा था......
कीर्ती वैद्य.....०६ अप्रैल २००८
7 comments:
bhavna se bhari dard ko bayan karti bahut khub
बहुत अच्छी कही
दर्द से भरी भावनाओं को व्यक्त करती आपकी कविता पसन्द आई....
बस कुछ स्पैलिंग मिस्टेक्स का ध्यान रखा करें तो बेहतर होगा
bahut umda !!
bahut sashakt haen
but
aap sab kii umar mae woh kavitaaye aaye jo naari kee safaltaa ko dikhaye , ghutan liknae kae liyae 79-80 dashak kii mahilla haen
tum sab ko zameen unhonaey dee haen ab tum is ghutan ko kyon vyakt kartee ho
woh kavitaaye likho jhaan jindii jeettee haen
aur
yae kaviya bahut achichi hae is mae koi shak nahin haen
tumahri didi
rachna
कीर्ति जी
कु्छ कुछ समझ आ रहा है
दर्द कहाँ से और क्यो
लावा बन के बाहर आ रहा है
बहुत ही सुन्दर दिल पे प्र्भाव छोड़ती कविता
बाहर ही दिख रहा है जब दर्द का सैलाब इक
स्त्रोत में क्या होगा ये सोचा भी नहीं जा रहा है
सीधे दिल को छूने वाली कविता
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