23 July 2010

क्या बदला क्या नहीं

क्या बदला क्या नहीं

किसी शहर को.. सालो बाद देख

सब मै बतला नहीं सकती ...

पर...

घुटनों का दर्द ... बतला रहा है

जन्मदिन निकट आ रहा है

उम्र का एक पन्ना ... बिन पूछे

आगे पलटा जा रहा है...

अब आगे और क्या कंहूँ

कलमुहाँ आईना भी अब

मुँह चिडा रहा है .........

कीर्ति वैदया ...२३ जुलाई २०१०

9 July 2009

समझ तेरी


मैं, इश्क ढूँढने चली
तेरी मासूम आँखों में
पर तूने आँखे फेरी,
अजनबियों के तरह....

मैं दोस्त ढूँढने चली
तेरी मीठी बातो में
पर तूने मुख ही मोड़ लिया
परदेसियों के तरह......

मैं जीने लगी थी
तेरी बाहों की छायो में
पर तूने दूर छिटक दिया
जानवर समझ कर ........


कीर्ती वैद्या ....07/07/2009

दर्द तो होगा

पत्यिया तो नहीं थी फूल की
जों तोड - मोड़ फेंक दी....
यादें थी वो बस मेरी ज़िन्दगी की
जों दिल के कोने में दफना दी ...
उम्र बीत जायेगी और ये पल-लम्हा भी
टीस रह जायेगी जों,
जख्म बन रिसती रहेगी
दर्द तो होगा पर चेहरा
हँसी - ठिठोली में छुप जायेगा.....

कीर्ती वैद्या DTD 07/07/2009

7 July 2009

पल अपना


कितना इंतज़ार ..कितने दिन
और , फिर
कितने पल ... यूँही बिन पँख,
उड़, हवा बन जाए
मौसम बदले, सावन बरसे
रिमज़िम, चाहे फिर अखियों से झरे जाए
क्यों... काहे मन गुनगुनाया जाए
गीत गुंजन खुशियों के हो
या फिर दिल के बातें बोले जाए
फिर लिख-सून मन,
कुछ पल हंस जाए
एक पल अपना फिर यूँही बीत जाए...

कीर्ती वैद्या 07TH JULY 2009

30 April 2009

शायद मिले फिर वे

काली उलझी सड़क पे
पक्के सुलझे संवाद थे
धूप - उषण में जले
प्यासे पिघले ख्वाब थे
हवाओ के तूफ़ान में
मन के भीगे भावः थे
शायद मिले फिर वे
सागर सीने में तूफ़ान थे......

कीर्ती वैद्या..... 25th april 2009

कहना तो अब भी बहुत है....

वो जला भुझा टुकडा
मुझे घुर रहा था
सब कुछ जल जाने के बाद भी
मासूम बेजुबान मेज पर पड़ा था
पता नहीं हँसू की रोऊँ, तुम्हारी
आँखों की याद दिला रहा था
कहना तो अब भी बहुत है, पर अब
खामोशियों का शहर आबाद था.....

कीर्ती वैद्या ... 27 april 2009

25 April 2009

लव सीन

लव सीन बिखरते ही
आंसू टपकते ही....
यारो, इक कश भर लिया
और कुछ तो सूझा नहीं
ढेरो, बेमाना सामान खरीद लिया
उदास मुखड़े की सिलवटो को
विदेशी दारू की बोतल से धो दिया...
अगर अब भी, हम रोते नज़र आये
तो सच समझे ....
हम अपनी ज़िन्दगी को पीछे छोड़े आये

कीर्ती वैदया 24TH APRIL 2009

13 April 2009

इल्जाम

वो टूटे कांच के ग्लास, ना मेरे थे
और ना वो खाली बोतले मेरी...
बस मैंने तो उन्हे, यूँही
होंठो से छू...गले से लगया था...
प्यासे तो दोनों ही थे....
फिर भी सब टूटने का इल्जाम
यूँही मुझपे लगा....
बदनाम भी मै ही रही .. आँसूं भी मेरे ही रहे...

कीर्ती वैद्या ...10 april 2009

9 April 2009

उम्मीद तो नहीं...

ढ़ाक से झरते सुखी पत्तो सी
इत्-उत् डोलती...मन-मर्ज़ी की
शायद, अच्छी मस्त हूं, अकले ही
उम्मीद तो नहीं...
किसी को पाने-खोने की....
फिर.. शायद हो सकता है,
दोबारा जीने की....

कीर्ती वैद्या .... 09th april 2009