2 May 2008

सब ढल गया....

गुमसुम नदी की पलके कुछ
हवा की चुभन से नम थी
उदास पीला सूरज मुरझा
काले बदलो में छुप गया
शाम ओढ़ सय्हा चादर
नदी को बाहों में छुपा
सब ढल गया अब
समझा रहा था......

कीर्ती वैद्य ०१ मई २००८

2 comments:

Krishan lal "krishan" said...

कीर्ति जी
बहुत सुन्दर शब्दो मे व्यक्त किया है मन के अरमानो के सूरज को ढलते हुये। बधाई
चाहुँगा कि कल एक कविता इतनी ही खूब्सूरत मन के अरमानो के उगते हुये सूरज पर भी लिखे और पोस्ट करे। । फर्माईश का हक तो है ना हजूर

Krishan lal "krishan" said...

कीर्ति जी
आप की उम्र मे ये ढलने ढलाने वाली कविता कहाँ से आ गयी सब कुछ कभी नही ढलता केवल दिखाई देता है भ्रम है । सूरज को ही देखिये ना जो सूरज यहा ढलता दिखाई देता है वो अमेरिका मे उगता दिखाई देता है

माना कि हूँ ढलता सूरज कुछ देर मे ढल भी जाऊँगा
पर मत समझो कि ढलते ही मै खत्म कहीँ हो जाऊँगा
परिवर्तन शील इस दुनिया मे इतना परिवर्तन होना है
था आज जो मै इस ओर तो कल उस ओर मुझे अब होना है

अब आपको ये कहने का तो कोई फायदा नही कि इस टिप्प्णी को पबलिश करने की जरूरत नही है क्योकि आप तो पबलिश कर ही देंगी। मानना तो आपने सीखा ही नही ना । ठीक है जो जी मे आये करना।