12 December 2008

दर्द

कुछ ढका कुछ छुपा सा

गुमसुम बूंदों से तरा सा

झुरमुट मेघो से घिरा सा

शायद ............कोई

दिल में छुपा दर्द रहा

जो, कभी बह ना सका

बस, चहरे पे उमड़ गया....

कीर्ती वैद्या ....११/१२/2008

12 November 2008

आंसू

एहसासों के ताने बाने लिपटे

चाँद तारो को एकटक तकते

बिन कदमो बिन आहाटो के

मीलो दूर बेवजह घुमे आये

सुबह, सब बिखरी औंस देखे

हम अपने खोये आंसू पर हँसे.....

कीर्ती वैद्य....11th nov'08

22 August 2008

सुबह मुबारक

मीठी-मीठी,
प्यारी-प्यारी
बूंदों में भीगी
नीर बदरा भरी
सुबह मुबारक ....

कीर्ती वैद्य

16 July 2008

शहर

जी, यह शहर बहुत अजीब है...
चाँद छुपने से पहले जग जाए
रात के अलसाए खाव्बो को, किनारे रख
दफन ज़िन्दगी के बासी अफसानो को
अखबार की सुर्खियों में ढूंढता है ...

जी, यह शहर बहुत सख्त है...
इंसानियत का मखोटा उतार,
साहब तो कभी गुलाम नामक
इक प्लास्टिक लेबल चिपका
पेट की बेबस भूख तो कभी
दुनियादारी के रिवाजो के लिए
झूठ के आगे आँखों का पर्दा खींच,
सेंकडो सच डकार जाता है
भीगी बिल्ली बन खोखली हंसी हंस
ना जाने कितनो के सपने डसता है...

जी, यह शहर कुछ नमकीन है...
अपनी ख्वाशियो के छल्ले, धुएं में उडाता
ज़िन्दगी बस इक कड़वा घुंट, यही समझ
हर शाम, अपनी बेहयाई का जाम गटकता
तंग गलियों से कभी गुजरे तों,
बेबस हालातों पर सिसक जाता है
कभी, भरे बाज़ार अपनी ही नीलामी पर,
लाचारी-बेबसी का मातम मनाता है

जी, यह शहर फिर भी अपना है ...

कीर्ती वैद्य....10/july/2008

9 July 2008

आखरी दम....

दरवाजे पर दस्तक हुई
इक नहीं, दस बार हुई
सोचा खोले ... पहले इस
सिगरेट के टुकडे का
दम तो भर ले,
कंही बहार खडा तूफान
इस आखरी साथी को
संग ना बहा ले जाए
कुछ पल जो बचे, बस
धुएं के संग धुयाँ हो जाए
फिर बस राख बचेगी
डर नहीं ...कोई भी
बिन दस्तक दे ही
हमे फ़िर पुकार ले .....

कीर्ती वैद्य ... 09 july 2008

कड़वा सच ....

सुना और परखा

हाँ....सही

सच, कड़वा था

खिड़की से झांकता

मुँह चिडाता सा

पर .... हाँ

इक और सच था

ये कड़वा, मीठा लगा

सब ...जैसे

बन्धीशो से मुक्त था

ना थी कोई बेचेनिया

ना कोई इंतज़ार रहा

खुल गया, हाँ पिंजरा

उड़ा रहा अब मनवा

दफ़न कुछ था, रहा

बिफरा, पर फर्क था

अब ... आज

आंसू भी मीठा लगा....

कीर्ती वैदया ०९ जुलाई 2008

8 July 2008

सोचते है तुम्हे ........

अक्सर सोचा करते है, तुम्हे

सुबह-शाम .... सोते - जागते

डायरी को शब्दों से भरते

कभी....किसी किताब के

पन्नो को पलटते - पलटते

उड़ती नीली-पीली पतंगों के

धागों से उलझते हो, सोच में

सोचते है ...क्यों सोचते है सोचते

जंगली कंटीले बेंगनी फूलो से

अक्सर चुभ जाते हो, सोच में

कई बार सोचा....दूर रखे तुम्हे

इस बेमतलबी सोच के दायरों

से गर्म हथयलियो पर बर्फ पिघले

ऐसा कुछ महसूस कर रुक जाते

टिमटिमाते दियो को इकटक देखे

तो ना जाने क्यों आंसू बन छलक जाते

सोचते है....क्या तुम भी सोचेते हो

जैसे हम सोचते है, हर घडी तुम्हे ......

कीर्ती वैद्य 08 JULY 2008

17 June 2008

आसमां का सिंदूरी रंग ....

हाँ, उस शाम मिलूँगी,
जब थक फीका सूरज,
सागर के आगोश में
उतर रहा होगा
तब ....
लहरों में अब सी बेचैनिया नहीं
हाँ, शिकन की रेखाए जरुर होंगी
टूटे घरोंदे की रेत
नए मुसाफिरों की
राह तक रही होगी
शायद ... फ़िर ... तब
मैं तुम्हे मिलूं
इक बार फिर
पुरानी जिद्द करूं
अबके दिलवा दो
वो आसमां का सिंदूरी रंग ....

कीर्ती वैद्य .....16 june 2008

12 June 2008

रंग

रंगो के गुच्छे
हरदम संग रहे
कुछ पलकों तले
कुछ मुट्ठी धरे
कुछ चलते चलते
चुगु भूरी ज़मी से
कुछ तोड लाऊं
अलसाए आसमां से
कभी टकरा जाए
सागर के सीप में
कभी नदिया की
जलातारंगो में
कभी आहट दे
पंछीयो के करलव में

जानते हो क्यों .....

सब रंग चुरा
सजाया अपना
इक आशिया
तुम्हे रखूंगी
अपने पास
बस वंहा
अपने प्यार के
सब रंग
सह्जुंगी वंहा .........

कीर्ती वैद्य ..... १२ .जून .२००८

9 June 2008

सोच

सोच....बहुत हद तक ले डूबे

कभी ....
मन के अंधियारे गलियारों के
अनजान रास्तों के फेरे काटे

कभी ....

निर्झर झरने के नीर सी भागती जाए
राह की चट्टानों से टकरा, छलक जाए

कभी....
नील अम्बर को बन पतंग छुना चाहे
कटने के डर से धरा का रुख कर जाए

कभी ......
नटनी बन सुतली पर कलाबाजी खाए
चोट के भय से बच्चों सी तड़प जाए

हाँ, इक सोच ना जाने कितने आसमां दिखाए

कीर्ती वैद्य .......09 june 2008

7 June 2008

तन्हायिया




रेशा-रेशा डूबा अपनी ज़िन्दगी का
कमबख्त, तेरी बर्फ जैसी बातों से
रोते है, तो अब आंसू भी नही गिरते
पथराई, इन सुखी- फूटी आँखों से
कोरे कागज़ भी अब हमसे उब गए
इस बेबस दिल की लिखी बातो से
थक बैठ गयी, यह बेरंग ज़िन्दगी
रुखे फीके बेहाल एहसासों तले
बस .... अब सन्नाटो में बाते करे
हम....बस अपनी तन्हायियो से ...........

कीर्ती वैद्य .....16 may '2008

6 June 2008

अकेले

खुश हूँ .... अकेले ही
यादे कुछ अब भी
उनकी, मेरे .... संग है
हर सुबह बन ताज़ी फिज़ा
जिस्म में ..... उतर जाए
चाय के ठंडे प्याले में
तुम्हारी गर्माहट .... घुल जाए
दौडते-भागते बेबस शहरी भीड़ में
बाते तुम्हारी ..... महफूज़ कर जाए
सांझ के चाँद से पूछ हाल तुम्हारा
क्यों तुम दूर ...... हम लड़ जाए
तकिये तले छुपा सब खाब्वो को
तुम्हारे अरमान ....ओढ़ सो जाए
नहीं कहते कभी किसी से
हम बस .....तुम्हे याद कर
हर दिन यूँही अकेले जिये जाए ...
कीर्ती वैद्य .....01 june 2008

22 May 2008

नितिन के लीए....

उस सोच से तुम परे हो
जिस सोच से तुम मेरे हो

तपी तपी गीली पीली धूप तले
मीठे मीठे तेरे कुछ एहसास खड़े

इस पल उस पल ज़िंदगी
बस सब तुम संग ज़िंदगी


होता है होता है....हाँ होता है
राहे जब जुदा ओर मंजिले एक हो

कीर्ती वैद्य

14 May 2008

समझो.....

आस सच्ची
उम्मीद कच्ची

फिर केसे...

पलकों दबे सपने
होंठो से कह पाते

कभी...समझो...

ठंडे जमे बर्फीले
शब्दों की चुभन
खाली
कोरी फीकी
आँखों की चाहत ...

कीर्ती वैद्य ....१४ मई २००८

तुम्हे....लिखूंगी......

तुम्हे....लिखूंगी
इक दिन, पक्का
जब.. शाम उतरेगी
उदास झरोखे में

अभी...

उमस दुपहरी में
अपनी बाहों में
सिमटने जाने दो
मीठे प्यारे
एहसासों को
सुने आँचल में
भर जाने तो दो.....

कीर्ती वैद्य ....१४ मई २००८

12 May 2008

केसे रोक पाती ....

सोचा, पास रख लूँ
अभी यंही...बस
अपने पास रोक लूँ

मन था...
बच्चों सी जिद लिए
शब्द थे ..
भावनाओ से जड़े, निरे गूंगे

फिर केसे सब कह देती
उससे जाने से रोक पाती

रोना......
शायद, जानती नहीं
मरुस्थल में बरसात
कभी देखी है
सब सुखा बंज़र
काँटों से भरा

फिर केसे रोक पाती ....

कीर्ती वैद्य ...... 12 may 2008

8 May 2008

लकीरे

कुछ आढी टेढी लकीरे
पन्ने ख़राब करती

कुछ टेढी मेढ़ी लकीरे
रास्ते बना जाती
कलम खींची लकीरे
कविता कहला जाती
कुछ हाथ की लकीरे
बदनसीबी से नसीबी
नसीब की लकीरे
उम्मीदे बाँध जाती

..........

हाथ की लकीरे
माथे पर शिकन बन
उभर आती है
जब उम्मीद टूट कर
जिन्दगी हाथ से
छूट जाती है......


कीर्ती वैद्य ....२७ मार्च 2008

7 May 2008

स्पर्श ज़िन्दगी का ....

रफ्ता - रफ्ता
बातो की कडिया जुडी
ज़िन्दगी अपना वेग
तेज हवा में ले उडी
जमी पर अब
पाओ कंहा रहे
गीतों की नदिया
जैसे बह चली
परिचय हुआ मात्र
धडकनों की चहातो का
पर स्पर्श जैसे अपना
ज़िन्दगी से हो गया....


कीर्ती वैद्य....1st April 2008

मेरी ज़िन्दगी मिल गयी....

मुझे लिखने की इक वजह मिल गयी
उन्हे गुनगुनाने की अब आदत हो गयी
ज़िन्दगी अब अपनी सुन्हेरी हो गयी
सुबह भी अब अपनी सतरंगी हो गयी
राते भी अब अपन खुशनुमा हो गयी
मुस्कुराने की इक वजह मिल गयी
सजने संवरने की इक तरंग जग गयी
सच, मुझे मेरी ज़िन्दगी मिल गयी

कीर्ती वैद्य ... १७ मार्च 2008

5 May 2008

बस, अब लौट आयो

भोर के दिए
लाल मीठे गुलाब
देखो...
मुरझा
गए
बस, अब लौट आयो...

सावन फिर गया
सुनो...
नहीं भीगना
अब दोबारा
बस, अब लौट आयो...

सज़ा गए, गीली
मेहंदी हथेली
वो...
कबकी सुख
मुरझा झर गयी
बस, अब लौट आयो...

अंगना वही, जो
महकता जो तेरे
गीत गुंजन से
सोच...
तप रहा
अलसाई धूप आँचल तले
बस, अब लौट आयो

काजल की सारी नमी
उतर आयी नयनो में
देखो ना
सांझ हो गयी
बस, अब लौट आयो

कीर्ती वैद्य... ०२ मई २००८

3 May 2008

अनकही कहानी .....

रात की बारिश से
भीगा ...व्यथित शहर
नम.. उमस.. उदास
बेमन बाहें फैला
फिर,
ज़िन्दगी के नए
पन्ने को
आगोश में ले
लिख रहा,
फिर, इक नई
अनकही कहानी .....

कीर्ती वैद्य ०२ मई २००८

2 May 2008

सब ढल गया....

गुमसुम नदी की पलके कुछ
हवा की चुभन से नम थी
उदास पीला सूरज मुरझा
काले बदलो में छुप गया
शाम ओढ़ सय्हा चादर
नदी को बाहों में छुपा
सब ढल गया अब
समझा रहा था......

कीर्ती वैद्य ०१ मई २००८

29 April 2008

कामकाजी नारी

कामकाजी लड़की हूँ , सो सोचा आज कुछ उनकी ही कुछ बात की जाए ।

एक कामकाजी महिला की जिमेदारिया एक घर रहने वाली महिला से अधिक होती है । घर के काम निपटाने के अतिरिक्त उन्हे अपने ऑफिस की जिमेदारियो को भी बखूबी निभाना होता है।

मेरे घर के पड़ोस में चार-पाँच घरेलू महिलाये रहती है जो मेरी उमर से मेरी माँ के उमर तक की है । कई बार में ऑफिस से अधिक काम की वजह से देर रात घर आती हूँ और वो भी अपने किसी पुरूष सहकर्मी के साथ जो उन् महिलाओ के बीच अक्सर गॉसिप का विषय बन जाता है । एक बार उड़ते-उड़ते बात मेरे कानो तक पहुँची तों मैंने उन औरतो की जमकर ख़बर ली ।

आप कहेंगे की इसमे बड़ी क्या बात है ...


बड़ी बात तों है दोस्तो ...अगर इस तरह से एक औरत ही दूसरी औरत पर टिप्न्नी कसेगी तों केसे हम सब औरते बदलाव और समान अधिकार के बात कर सकती है ।

अक्सर अपने ही दोहरे मापदंडो के वजह से ही औरते कभी-कभी मात खाती है और फ़िर अपने औरत होने पर रोती है ।

कीर्ती वैद्य ...

25 April 2008

लवारिश लाश


अभी-अभी गंदे नाले से
मेरी लाश निकाली गयी

कहते है....

फटेहाल, नशे में धुत
मैं आप ही यंहा गिरा
अपनी मौत का, मैं
आप ही जिमेदार हूँ

अरे रोको....

बेवजह हस्पताल वाले
अस्थि -पंजर अलग कर
मेरी पोस्टमार्टम रीपोर्ट
कमज़ोरी से मरा लिख रहे

बेवाकुफो....

यह तो भुझो
क्यों हुआ मैं कमज़ोर
जब सेंकडो धक्के खा भि
नहीं पा सका, मैं नौकरी
भूख रोक अपनी
माँ का इलाज तो करवा गया
पर अपनी मौत
मैं ना रोक सका ....

हाँ डाल दो ....

अखबार की सुर्खियों में
लावारिश लाश की मौत का
अबतक कोई सुराग ना मिला.....

कीर्ती वैद्य ..११ मार्च 2008

ओह ..लड़की हुई है...

महिला जिनके साथ ३२ साल जुड़ी रही, एक खुशमिजाज़ महिला जो घर के हर काम में निपुण थी ।

अपनी ४ बहुओ की लाडली सास। जब भी उनकी कोई भी बहु गरभती होती तों उसके हजारो नखरे सर आंखो पर उठाती ।
कभी उनके सर तेल डालती कभी उनकी रूचि का खट्टा - मीठा पकवान बनाती ।
बच्चे के जनम के समय हमेशा सब से आगे हॉस्पिटल में खड़ी रहती ..कोई समस्या तों नही ....सब ठीक तों हैना डॉक्टर जी।
तभी एक नर्स लेबर रूम से चिल्लाती आती है "माता जी लड़की हुई है" ......और माता जी का पीला चेहरा और वो शब्द " ओह ...लड़की हुई है "

न जाने क्यों यह शब्द मुझे हमेशा उनसे बहुत दूर खींच ले जाते, ऐसा लगता की उन्होने मुझे और अपने को भी गाली दी है।

क्या सच में लड़की का होना अपराध है ? क्या एक औरत को दूसरी औरत का नव स्वागत ऐसे करना चाहिए ?

क्यों लड़कियों और लड़को की परवरिश में भी फर्क रखा जाता है जबकि दोनों एक ही घर के बच्चे है , लड़का होता है तों ढोल पीते जाते है पूरे शहर का मुँह मीठा किया जाता है और अपनी ही बेटी के जन्म पर अपना ही मुँह खट्टा हो जाता है।

देश प्रगति की रहा पर है, शिकषित लोगो की संख्या बढ़ रही है पर हमारी सबकी सोच अब भी वंही के वंही थकी और बीमार पड़ी है

कीर्ती वैद्य .....

दहेज एक पुरानी दिमक

कलम चलाते वक्त याद नही रहता की मैं कौन हूँ , बस याद रहता है वो जो अपनी खुली आंखो से अपने आस पास होता देखती और महसूस करती हूँ

हम नारी होने का दावा करती हैं और नारी समस्या का अवलोकन भी साथ-साथ चलता है पर हम मैं से कितनी है जो हमेशा नारी अत्याचार के पक्ष मैं आवाज उठाती है

मैं दूर नही जाती, अपने घर अपनी ही छोटी बहिन की ही बात आज आपके साथ बाँटती हूँ १६ अप्रैल '०८ को उसके विवाह को आठ साल पूर्ण हुए है मात्र कहने के लिए अपने पति के घर इन आठ सालो में बस कुछ महीने ही बीताये है, कारन वही पुराना घीसा पीटा "दहेज"

अक्सर जब वो अपने सात साल के बेटे के साथ बैठी बाते करती है तों पति हूँ क्या पाया उसने इस विवाह के बदले
वूमेन सेल के चक्कर , कोर्ट और वकीलों की बहस या रिश्तेदरो की बाते ....

आसान नही ऐसी ज़िंदगी जंहा एक लड़की, हाथो में मेहँदी सजा, इक नए परिवेश में जाती है और नए सिरे से अपनी ज़िंदगी को उस माहोल में ढालती है कभी बहु तों कभी पत्नी बन कर , लेकिन क्या ससुराल वालो का फ़र्ज़ नही की उसके लाये समान को तोलने के जगह उसकी मदद करे
अरे, कम से कम औरत होने के नाते ही उसकी सास और ननद इक अच्छा वय्व्हार करे यह कौन सी रीत है की उसे भूखा , हाथ पैर तोड़ उसके, बंद काल कोठरी में मरने के लिय छोड दे

इन्साफ के लिए , औरतो के बचाव के लिए ४९८ नामक धारा तों कानून में है ..पर इन्साफ के लिए कितनी कोर्ट के चक्कर लगाने है यह कंही नही लिखा है ..कितना वकील और कब तक पैसा लेगा यह भी तए नही है

दिल्ली की पटियाला कोर्ट की बात करूँ तों हजारो ऐसे फैसले अभी भी कई सालो से सड़ रहे है और जाने कब वो वंही दम तोड़ देंगे

केवल नुकसान हो रहा है तों उन सताई औरतो का उनके बच्चो के भाविषेयो का जो शायद इसी आस में हर बार कानून के आगे इक अस लिए खडे रहते है की शायद अब आज उन्हे फ़ैसला मिल जाएगा........

फिलहाल इतना ही ओर लिख नही पाऊँगी ...उन बेबस औरतो के चेहरे मुझे रुला रहे है...

कीर्ती वैद्य ....

हमने ज़िन्दगी को...



आज मीठी धूप को अंगना से
नज़र झुकाए गुजरते देखा..
अलसाये मौसम की आँखों में
बेशुमार इश्क उमडते देखा
पीले फूलों की क्यारियों को
प्रेम गीत, गुनगुनाते सुना
भंवरा बेचारा भर रहा
आहे...शायद वो अकेला पड़ा
उदासी के आलम में भि
हमने ज़िन्दगी को, आज
नए रंग में पसरते देखा......

कीर्ती वैद्य २२ अप्रैल 2008

24 April 2008

जब तू ही....


कया गाऊं अब कया गुनगुनाऊ,
जब तू ही मुझे भुला बैठा.
बुझे बेजान लगते सारे रंग,
जैसे कफ़न की बर्फ जमी हो.
रोशनियाँ भी सागर के लहरों सी,
रोती चीखती टकरा गुज़र जाए.
ढलते सूरज का मुखड़ा तो देखो,
बिस्तर पडे रोगी सा दिखता.
शहर भी शाम ढले, अब कोने छुपा,
अपनी बेबसी पर रोता मिल जाता.
मौसम भी अब कर तेरा इंतज़ार,
अपना श्रृंगार कब का भूल बैठा.

कीर्ती वैद्य ...२३ अप्रैल 2008

23 April 2008

फर्क


हाँ, फर्क तो है मुझमें और तुझमें
तु अब भि आँखे फाड़े, होंठ सीए खडा

देख लो...

आज भि जाम मेरे हाथ वैसे ही थमा
कितना तुने रोका कभी समझाया था

मालूम था...

तु बेवफा, मुझे तनहा छोड चला जायेगा
पर ये जाम कभी मेरा साथ ना छोडेगा

जान लो .....

अपनी बेशर्म नंगी खामोशी को
जाम की मदहोशी भि सब समझती है ....

कीर्ती वैद्य २० अप्रैल 2008

22 April 2008

रंग प्रेम

हाँ रंग, लाल-पीले, हरे-नीले , नारंगी-जामुनी किसके मन नही भाते

जब मैं छोटी थी तों पीले नन्हे फूलों की क्यारियों में नंगे पाओ थिरकती रहती थी और अपने पेंसिल बॉक्स में ढेरों मोमी रंग इक्ठे करती, कभी घर के दीवारे तों कभी पडोसन आंटी की सफ़ेद साड़ी में भी अपनी पसंद के रंग फूंक देती यह तों ही जानती हूँ की फ़िर मेरी माताजी मेरे चहेरे को केसे लाल-पीला करती थी

अपना जन्मदिन भला किसे अच्छा नही लगता और मेरा तों कुछ ज्यादा ही खास दिन १५ अगस्त को टपकता है सुबह ही मनपसंद लाल रंग की नई फ्रोक पहन, घर की छत पर कभी हरी तों कभी नीली पतंग के पीछे उछलती रहती थी खेर बदला होगा समय आपके लिए पर मैं आज भी यूँही अपना जन्मदिन रंगीन पतंगो के बीच मानती हूँ

दीवाली हो या होली घर में रंगोली का काम मुझे कभी नही सौंपा जाता, छोटी बहिन के हिसाब से मुझे रंगो के मेल मिलाप की अक्ल नही है पर यह मेरा दिल जानता है की मैं रंगो को छुए बिना केसे रहती हूँ पर हाँ मैं अपने हाथो मैं रंगोली बनाती हूँ मेहँदी की पिचिकारी से कम से कम वो तों मेरी अपनी निजी सम्पति है और नाखूनों को पूरा गुलाबी नेल पोलिश से सारोबर करती हूँ

गर्मियों में अक्सर नानी के घर शिमला जाती, वंहा के पहाडी जंगली जामुनी और लाल फूलों की तो मैं दीवानी थी अक्सर हल्की रिमझिम बरसात के बाद पहाड़ ऐसे धुल कर हरे भरे हो जाते जैसे माँ ने अपने काले मिटटी से भरे बच्चे को नहला नए कपडे पहना दिए हो , आस्मा मामा भी चटक नीली कमीज़ मे हंसते हुए हाथ मे थामे इन्द्रधनुष, घर की चोख्ट पर जाते एक-एक रंग इन्द्रधनुष का अपनी उंगलियों से सप्र्श करती और रेडियो पर चलते किसी पहाडी गीत पर आंखे मींचे सारी कायनात को अपने भीतर महसूस करती

सच, यह रंग जिंदगी के बहुत मीठे रहे ....इनकी कल्पना मात्र आज भी मुझे तरो-ताज़ा कर जाती है ।

और अब यह दिल्ली की भाग-दौड़ की ज़िंदगी, सुबह जगती है अलार्म की घंटी व ब्रेड ओर बटर के संग । सूरज महाराज का चेहरा तों शाम होते पिल्पिले सडे पीले आम सा लगता है ।

आस्मा की तरफ़ मैं नज़र ही नही डालती, जब देखो कलि चादर से मुँह ढके किसी भूत से कम नही लगता ।

पता नही, मेरे प्यारे मीठे रंग न जाने क्यों और कंहा खो गए है .... कीर्ती वैद्य

21 April 2008

मेरी अपनी बात

"नारी" ब्लॉग पर यह मेरी पहली रचना है, यदि कुछ ग़लत लिखूं तों मुझे नासमझ कर माफ़ करे।

अपनी दस साल की नौकरीपेशा ज़िंदगी में मेरे अनुभव कुछ बड़े अजीब और खट्टे रहे लकिन जो भी रहे उनमे अधिकतर मीठे भी रहे पर हमेशा कटु अनुभव कम ही भुलाए जाते है ....

अब से पाँच साल पहले में जिस कम्पनी में काम करती थी ...वंहा के विवाहित मेनेजर ने बेहद निर्भीकता के संग मेरे सामने हमबिस्तर होने का प्रस्ताव रखा , चोंक्ने की बात यह नही की उन्होने ऐसा कहा बल्कि यह थी की मैं उनकी धर्मपत्नी को अगर बता देती तों उनका क्या हर्ष होता यह भी नही सोचा उन्होने ....खेर मैंने भी उनके ही अंदाज़ मैं उन्हे ना का पट्टा दिखा दिया

लेकिन जनाब अभी भी कभी कभी अपना रंग दिखा ही देते थे और मैं उतनी ही निडरता के साथ उनकी बातो का जवाब दे देती थे ..जानती थी की नौकरी तों जानी है पर पहले नई नौकरी तों ढूंढ ले तबतक इन्हे झेल लेते है

एक दिन हम पर कुछ चिल्लाते हुए बोले " यह तुम्हारा ऑफिस है घर नही ढंग से काम करो " मैंने भी उसी अंदाज़ मैं जवाब दिया और वो भी सारे स्टाफ के सामने " सर, मुझे भी पता है ऑफिस है , आपका बेडरूम नही , पर हर बार आप भूल जाते है "उसे दिन जनाब ऑफिस छोड जल्दी घर भाग गए

खेर मैंने इसके बाद भी वहाँ पूरे चार महीने और काम किया और उनकी नाक में दम किया ...आखिरकार नई नौकरी मिल गई और अब जाना था पूरा बदला ले कर ..सो अब मैंने उनसे जानबूझ कर तु-तडाक भाषा का प्रोग करना आरंभ कर दिया ..आखिरकार गुससाये मेनेजर ने मुझे नौकरी से निकाल दिया वो भी मेरी धमकी के अनुरूप मुझे एक महीने की अतिरिक्त आय देकर

आप सोच रहे होंगे के मैंने ऐसा क्यों किया , इस बात पर चुप क्यों बेठी रही ..हल्ला क्यों नही मचाया।

जवाब बिल्कुल सीधा है ......आज भी बड़े बडे महानगरों में यह सब आम हो रह है और लड़किया अपने घर की जिमेदारियो में दबाब में ऐसे लोगो के बहकावे में रही है और मजबूरन ऐसे घटिया कर्मो में धन्स्ती जा रही है

बात पुलिस तक जा सकती है पर क्या हमारा कानून हमे जल्द इन्साफ दे पायेगा ? नही ...कभी नही....

बात उनकी धर्मपत्नी तक जाए तों क्या वो हमारा साथ देंगी या उल्टा हमे ही ग़लत कहा जाएगा...

मैंने अपने हिसाब से उसे, उसके ही स्टाफ के सामने नंगा ही नही किया बल्कि उसे माली नुकसान भी पहुंचाया और अपने लिए नई नौकरी का इंतजाम भी किया


मजे की बात यह रही की मेरे घरवालो को मेरी नौकरी बदलने के बाद इस घटना का पता चला.
...ै

आप के विचार क्या है , इंतज़ार में ....कीर्ती वैद्य

17 April 2008

यादो का सिलसिला..

यार, यह यादो का सिलसिला क्यों होता है...

भूलना चाहते है हम तुम्हे,
फिर भि तू हर वक़्त क्यों पास होता है.

दुनिया से सुना है आस्मा और भि है
फिर यही इक टुकडा मेरे नसीब क्यों है

थमती क्यों नहीं यह बरसात आँखों की
निकलती क्यों नहीं याद तेरी इसे दिल से

दुनिया से सुना है सत्रंगो के बारे में
फिर इक ही रंग मेरे हिस्से क्यों है.

भीड़ है रिश्तो -दोस्तों के इस जहाँ में
फिर भि मैं तन्हा क्यों तेरी याद में

दुनिया से सुना है, प्यार के मीठे एहसास के बारे में
फिर यह कैसेला एहसास हें क्यों तेरे प्यार में

रुक क्यों नहीं जाती यह सांसे अब मेरी
शायद यूँही ख़त्म हो यह अब यादे तेरी

और ख़तम हो जाये यह यादो का सिलसिला भि....

कीर्ती वैद्य ०५ मई २००७

11 April 2008

सिन्दूर

कबर की कच्ची दीवारों में दफनाया जा रहा था
बिन पूछे ही उसकी साँसों को दबाया जा रहा था
रस्सी बंधा तन मछली सा छटपटाया जा रहा था
पिहर की यादो से अंखिया छलकाया जा रहा था
कोख में मेहमान की चिंता में पिघला जा रहा था
हफ्तो से भूखे तन में भि ज़िन्दगी मांगे जा रह था
पीले पड़ते चेहरे से मेरी गलती कया पूछे जा रह था
टूटती हर संवाद्नाओ में भि आस पकडे जा रह था
आज, अपना ही सिन्दूर लो उसे मिटाए जा रहा था......

कीर्ती वैद्य.....०६ अप्रैल २००८

9 April 2008

तू और मैं .....

तू बोल, मैं बस तुम्हे सुनतीे रहूँ
कुछ तलक तेरे पास यूँही बेठी रहूँ

ओढ़ तेरी बातो का गुलाबी आँचल
रब से तेरी दुयाये यूँही मांगती रहूँ

तू गाए गीत मैं बस तुझे तकती रहूँ
कुछ पहर तुझ संग यूँही बीताती रहूँ

पिरो सुरों की कंठमाला, कर अर्पित
रब को, बस तुझे यूँही चाहती रहूँ

कीर्ती वैद्य......१३ मार्च २००८

7 April 2008

मैं कौन ...


आज भि यही सवाल मेरे ज़हन
ढूँढ रही ना जाने कब से, मैं कौन?

शायद वो...
जो गुडयिया से घर-घर खेले
नाक -चश्मा, काँधे बस्ता
कच्ची सड़क नाप, सकूल पहुँच जाये
रोज़, ढूध इक सांस में गटक
घंटो साईकल लिए फिरे

शायद वो....
गीतों के धुन पे मोरनी बन नाचे
कटी पतंगो,कभी तितलियों के पीछे भागे
रोज़ घुटने कभी कोहनी चोट खाये
माँ की डांट पर कोने बैठ मुँह फुलाये
बहना से लड़ उसकी टोफ्फी चुरा खाये

शायद वो...
चोरी से सिगरेट के छल्ले बनाना सीखे
कभी बियर के बोतलों में ज़िन्दगी ढूंढे
कभी इक सांस में मंदिर की सीढिया चढ़े
कभी सालो इश्वर को अपने में ही ढूंढे

शायद वो...
बिन परवाह किये बिन सब बंधन तोड़ दे
अपनी हथेली सजी मेहंदी को ही रोंद दे
कभी बन पहाड़ घर-परिवार संभाले
कभी शोला बन दुनिया फूंक डाले ..

शायद वो...
इंसानी रिश्तो को बारीकी से समझे
कभी उन्ही रिश्तो में छली जाये
आधी अधूरी ज़िन्दगी को हाथो में समेटे
कभी दुनिया को अलविदा कह जाये

फिर भि अब तलक ना पता
मैं कौन ... ?

कीर्ती वैद्य ....०५ अप्रैल २००८

1 April 2008

इक खबर .........



पावन मंत्रों का उच्चारण
गूंथे गीले बालो की चुटिया
पल्लू को संभालती
लाल टिकुली माथे सजाती
"बहु - जल्दी चाय दे दे '
मुस्करा रसोई में जा
चूल्हा जलाती.......
आहुति बन अग्नि में
अपना अस्तित्व खोती
बन एक खबर.......
नामी अखबार की
कोने में सहजी
"दहेज- इक ओर बलि चढी "

कीर्ती वैद्य ...३१/०३/२००८

31 March 2008

हमे आज फिर....

कुछ आवाजे बेवजह कानो में गूंजे
हाथ रख कितना भि चाहे रोकू इन्हे
आँखों से बन आंसू दिल पिघला जाये
कितना भि भाग, परछाइयों से बचा जाये
ज़िन्दगी फिर मुलाकात उनसे करवा जाये
उफ़...यह दर्द देती सिस्किया...
हमे आज फिर बर्बाद ना कर जाये...

कीर्ती वैद्य ......२९ मार्च २००८....

28 March 2008

क्यों ???

मैं क्यों किस के लिए हंसती रोती हूँ
शायद अपनी ही हस्ती मिटाती हूँ
कागज़ की नाव बना, पानी में बहा
डूबते देख फिर आप ही क्यों रोती हूँ
पता है जब मिटटी के घर कच्चे है
फिर भि सपना उनका क्यों बुनती हूँ
अरे, कोई तो समझा दे मुझे, फिर
मैं क्यों बरिशो में भि पयासी रहती हूँ.......

कीर्ती वैद्य ........२८ मार्च २००८

20 March 2008

पता नहीं कब से ....क्यों मैं तुम्हारी हूँ



पता नहीं कब से ....क्यों मैं तुम्हारी हूँूँ

आँगन मैं सूखे पतों की फुर्फुराहट
मेरा डर के तुम्हारे सीने लग जाना
ओर वो तुम्हारा जोर जोर से हँसना
मेरा गुस्से में बरामदे मैं बैठ जाना
ओर वो तुम्हारा मुस्का कान पकड़ना
मेरा तुमसे फूलों की सा लिपट जाना

पता नहीं कब से ....क्यों मैं तुम्हारी हूँ

सांझ ढले नदिया किनारे आंखे मींचे बैठना
कांधे तेरे सर रख, मेरा वो गुनगुनाना
ओर वो तुम्हारा मुझपे पानी छिन्टना
मेरा गीत छोड तुम पर चिल्ला जाना
और वो तुम्हारा बच्चों सा लाल चेहरा
मेरा फिर तुम्हे प्यार से बाहों में भरना

पता नहीं कब से ....क्यों मैं तुम्हारी हूँ

कीर्ती वैद्य १७ मार्च २००८

17 March 2008

जब हम मिल जाएँगे.....



हाँ, इक दिन वो आयेगा
जब हम मिलेंगे...

इक गर्म चाय के संग,
हम बातो मैं घुल जाएँगे.

कुर्मुरे चिप्स चटकाते,
करीब थोरा ओर जाएँगे.

कोसी-कोसी धुप तले,
प्रेम-प्रीत में भर जाएँगे

ठंडे पानी के गिलास संग,
मीठे सपने संजो लेंगे.

तंग भरी सड़क पे चलते-चलते,
हम भि ज़िन्दगी पकड़ लेंगे.

भुट्टे का नींबू-मसाला चख
अपना भि घर बसा लेंगे

हाँ, इक दिन वो आयेगा
जब हम मिल जाएँगे.....

कीर्ती वैद्य.....

14 March 2008

तुम




तुम रोज़ मिलो या ना मिलो..

तुम्हारी याद , बन, मीठी धूप
रोज़ मेरे अंगना परस जाए
बेवजह ही सुने आंचल
ख्वाशिये हजारों भर जाए
भीनी-भीनी तेरे सांसो की महक
मेरी रूह में गुपचुप उतर जाए.

तुम बात समझो या ना समझो...

तुम्हारी कशिश, बन इक चाहत
रोज़, मेरी बगिया महका जाए
बिन परो के ही बन तितली
तेरी प्रीत मैं मन झूम जाए
चुग चुग कर तेरी बाते को
कोयल सा मीठा गीत बन जाए

तुम जानो या ना जानो....

कीर्ती वैद्य ...

13 March 2008

सिलसिला .....



कया
है, सिलसिला जो तुमसे जुड़ गया....

पलकों पे इक खाव्ब रुक गया
लबो पे तेरा नाम गुनगुना गया
सुबह हमारी फूलों से महका गया..

कया है, सिलसिला जो तुमसे जुड़ गया....

फूलों सा नम औंस से भीगा गया
चाँद के टुकड़े से हमे दमका गया
सावन के हिंडोले में झुला गया..

कया है, सिलसिला जो तुमसे जुड़ गया....

दिए के ज्योत जैसे जला गया
मंदिर्यालय की घंटियों सा बज गया
पावन श्लोको सा बरस गया..

कया है, सिलसिला जो तुमसे जुड़ गया....


कीर्ती वैद्य .........

10 March 2008

इंडिया गेट और कवियो का संग


कल दिनांक ०९ मार्च'०८, हम कुछ कवि जन इंडिया गेट में इकठा हुए थे..
कुछ
उनकी और अपनी कवीताये हमने एक-दूजे संग बांटी....

उपस्तिथ कवि -

अनिल जी (मासूम शायर)
दुष्यंत जी
कीर्ती वैद्य
विकास (जानुमानु)
विशेष
अवदेश

मैं यह बताना जर्रुरी समझती हूँ की हम सब पहली बार एक दूजे से एक साथ मिले वैसे तों हम सभी -मेल और टेलीफोन से जुडे है और मिलने का कारन सिर्फ़ कविताये ही नही अपितु हम सभी जन मिल अपनी पुस्तक प्रकाशित करवाने की पहल भी कर रहे है।

कुछ तस्वीरे हम सभी की :-















7 March 2008

लटका दो.....

अक्सर लोग चेहरे बदल-बदल
अपनी तस्वीरे खीन्च्वाते है
रंगीन फ्रेम में चढा उन्हे
दीवारों पर लटकाते है
बेवजह उनपर नज़र दौडा
अपनी बेवाकुफियो पे हंसते है
अरे, कोई समझाए इन्हे
वो इस तरह का नाटक कर
अपना ही ड्रामा क्यों रचते है
लटकाना ही है तो लटका दो
थके हुए समाजिक ढांचे को
लाचार पडे, कानून को
इक रोटी के टुकडे के लिए
नचाते अपने नेताओ को
मासूम बचपन छीनते
जेब गरमाते उध्यमियो को
अरे.... सच कहती हूँ
लटका दो ऐसे लाचारों को
शायद फिर सच मज़ा आयेगा
उन्हे देख मुस्कुराने का
अब अपनी नहीं,
उनकी बेवाकुफियो पे हंसने का .....

कीर्ती वैद्य....

5 March 2008

ऐसे ....

लिखती हूँ बस अपनी मन की बाते
जो बोलती नहीं होंठो पे लाके
चाँद को छूती हूँ रोजाना ही ऐसे
पलकों को खोलू उन्हे याद करके
ज़िन्दगी जीती हूँ बस मुस्काके
प्यार मांगती हूँ बस उन्हे पाके

कीर्ती वैद्य......

26 February 2008

"काश मिल पाती"

जिस बेबाकी से बाते करती हूँ
काश उतनी बेबाकी से मिल पाती
शाम ढले, काले अम्बर फैले
तारो को हाथो से चुन पाती
भर सतरंगी आँचल अपना
प्रेम तुम पर बरसा पाती
अनकही वो सब बातो का
काश, सारा हिसाब ले पाती
सूनी बैरंग शामो को
तुम संग गुलाबी बना पाती

कीर्ती वैद्य.....

सवाल

आस पास टूट फुट हो,
तो हाथो में समेट लूँ
मन भर कर अफ़सोस
फ़िरे बहार फेंक भि दूँ

पर आज कया करूं?

दिल अपना टूटा सा है,
इन फ़ैली भावनाओ को
सुलझाऊ तो केसे?
बिखरी बिखरी बातो को
बताऊँ भि तो किसे ?
अजीब होते है बंधन
निभाऊ भि तो केसे?

कुछ ऐसे ही ...

ढेरों सवालो का अम्बार
बरसाऊ भि तो किस पे?

कीर्ती वैद्य.....

22 February 2008

"प्राथना"

बैठ जाती हूँ रोज़
घर तेरे आ....
तुम देखते हो
पथरायी आँखों से,
पत्थर सा होता मुझे.......
अपनी भडास, डाल देखूँ ,
कब तुम कुछ बोलों.....
भुझी शकल पर
कभी तो नज़र डालो, तुम.....
थक गयी रोज़
तेरे दर आ-आ
कभी तुम भि कह दो
मैं भि पक गया "कीर्ती"
तेरे रोज़ यंहा आ जाने से
जा चली जा, ना पड़े अब
कभी जरूरत यूँ रोज़
तुझे मरने की.....
जानती हूं,
ना कहोगे ऐसे कभी तुम
अरे, फ़िर बिन मुह खोले,
बुला लो ना मुझे अपने पास....

कीर्ती वैद्य(कुछ ऐसे ही हम अपने भगवान् से बतियाते है)

21 February 2008

मन

कुछ नमकीन बूंदे, तो थी,
फिर भि पिघला गयी,
बावरे मन को.............

बातो का जाल ही तो था,
फिर भि बाँध गयी,
जोगी मन कों.............

स्नेह की डोर ही थी,
फिर भि जोड़ गयी,
टूटे मन कों............

स्पर्श मात्र धडकनों का था,
फिर भि बहा गया,
निर्गुण मन कों..............

कीर्ती वैद्य....

20 February 2008

झूठ


कितने
सवालो का अम्बार
क्यों? कब? केसे?
उफ़.....
कंहा और केसे समेटू
किस सिरे को पकड़
किस ओर तह मोडू
हाँ ....
सिमट तो जायेगा
ओर सहज भि
पर कब तक
यूं झूठ नापू

कीर्ती वैदया

18 February 2008

उमड़-घुमड़

कुछ उमड़ता घुम्ड़ता आया
खोल पट, छुआ शीतल स्पर्श
इक मधुर स्वर गुंजन,
किसी अभिलाषा का स्पंदन
गगरी से छलकी नमकीन बूंदे
भर आँचल, चुगती तारे
जोड़ यादे, पिघलती राते
खींच बादल, कुम्हलाती बाते.........

कीर्ती वैद्य

15 February 2008

अजीब बात

हाँ, अजीब ही लगा आज, जब देखा किसी ने मेरे घर का दरवाजा खटखटाया । जान न पहचान फ़िर भी अपनी बहना बनाया

बे-वजह हमारा रोज़ हाल चाल पूछा, बड़ी फुरसत से हमारे साथ चाय का प्याला थामा ।

एक दिन हमने यूँही कह दिया भाई अपने जो टोपी पहनी है, यह किसी ओर के सर पर मैंने देखि है। लो, हो गए वो शुरू.....अंडे क्या, पडे हमे दुनिया जहाँ के डंडे....कमाल की बात तों यह की हमे दुनिया का सबसे बड़ा "भ्रमित इंसान " के नाम से नवाजा। हम पर नकारा ओर फालतू का इल्जाम डाला।
उनकी इस हरक़त से हमने मोहल्ला क्या अपना बचपन का शहर भी त्यागा।

लेकिन हद तब पार हुई जब फ़िर एक दिन उन्हे अपना दरवाजा खटखटाते पाया। दांत उनके बहार, वही बेरहम मासूम हँसी छलका वो बोले " दीदी, छोटे भाई को माफ़ी न दोगी , छोडो, अब वो पुरानी बात ....नए घर ओर शहर में हमे चाय नही पूछेंगी।

हमारी तों जान निकल गई क्या अब यह हमसे चाहते है ..खेर अपने ज़स्बतो को दबा हमने पूछा, भाई जी हमारा पता आपको किधर से मिला ?

बड़ी नमर्ता से फ़िर हमारे भाई बोले हम दीदी अब आपके ही शहर में शिफ्ट हो गए है ओर इश्वर के कृपा से आज फ़िर आपके पड़ोसी बन गए है। जैसे ही हमने पड़ोस के दरवाजे पर नज़र दौडाई आपके नाम के नेम प्लेट पाई, तुरंत समझ गए अपनी प्यारी बहना का घर है , फ़िर काहे के शर्म ओर बजा दी घंटी।

अब तक हम समझ गए थे फ़िर बदलना होगा हमे अपना घर, लकिन अबकी बार बस घर ओर मोहल्ला न के शहर ...

कीर्ति वैद्य....

13 February 2008

चाँद

लो, आज वो हमे
अपना चाँद कह गए
सारी रैना, खिड़की खोले
चाँद तकते रह गए
अपना तों क्या, हम
अपनी जान को, सोचते चले गए
छु उंगलियों से चाँद, हम
उनकी चाहतो में डूबते गए
फैला बाहों को हम
प्यार का नगमा गुनगुनाते गए
रब से अपने चाँद का हम
जिन्दगी भर का साथ मांगते गए......

कीर्ती वैद्य