मैं क्यों किस के लिए हंसती रोती हूँ
शायद अपनी ही हस्ती मिटाती हूँ
कागज़ की नाव बना, पानी में बहा
डूबते देख फिर आप ही क्यों रोती हूँ
पता है जब मिटटी के घर कच्चे है
फिर भि सपना उनका क्यों बुनती हूँ
अरे, कोई तो समझा दे मुझे, फिर
मैं क्यों बरिशो में भि पयासी रहती हूँ.......
कीर्ती वैद्य ........२८ मार्च २००८
7 comments:
कीर्ति जी,
बहुत ही सार गर्भित कविता हृदय को छूने वाले भाव लिये हुये। खास कर ये पंक्तियां
कागज़ की नाव बना, पानी में बहा
डूबते देख फिर आप ही क्यों रोती हूँ
अरे, कोई तो समझा दे मुझे, फिर
मैं बरिशो में भी क्यों प्यासी होती हूँ.......
kirti ji
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Krishan Lal ji
shayad maan asa he hota hai ..bina soch samjh sapmey bunta hai jaankar bhi ke kabhi sapney purey nahi hotey ....
thanxs for ur valuable comment
बहुत सुन्दर लिखा है. ध्यान रखना कही कोई भोली ना कह दे. ओर इस क्यों का जवाब क्योकि यह 21 वी सदी है जी.
ji sushil ji
sach yeh 21vi sadi hai....kasur humara ha ke hum ab tak na janey ke zindagi ke raftaar humarey kahey nahi chalti ...
thanxs for ur comment & mail
bahut bhavpurna rachana hai badhai,sundar
thanxs mehak Ji
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