9 April 2008

तू और मैं .....

तू बोल, मैं बस तुम्हे सुनतीे रहूँ
कुछ तलक तेरे पास यूँही बेठी रहूँ

ओढ़ तेरी बातो का गुलाबी आँचल
रब से तेरी दुयाये यूँही मांगती रहूँ

तू गाए गीत मैं बस तुझे तकती रहूँ
कुछ पहर तुझ संग यूँही बीताती रहूँ

पिरो सुरों की कंठमाला, कर अर्पित
रब को, बस तुझे यूँही चाहती रहूँ

कीर्ती वैद्य......१३ मार्च २००८

3 comments:

डॉ. अजीत कुमार said...

एक बहुत ही सुंदर कविता और भावों की सुंदर उड़ान.
सिर्फ़ एक चीज कहने की गुस्ताख़ी करूंगा, कवितायें भावनाओं का बहाव होती हैं,अगर इन्हें साफ़ रखा जाये तो ये और चमत्कृत कर दें. यहाँ साफ का मेरा मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ लफ्जों की सही पच्चीकारी का है. बाक़ी आप ख़ुद समझ गयी होंगी.

Krishan lal "krishan" said...

तू बोल, मैं बस तुम्हे सुनती रहूँ
तू गाए गीत मैं बस तुझे तकती रहूँ
कुछ पहर तुझ संग यूँही बीताती रहूँ
क्या बात कही है कीर्ति जी कम शब्दो मे अति कोमल भावो की अभिव्यक्ति तो कोई आप से सीखे बहुत बढिया ।
कीर्ति जी मैने अपने ब्लाग पर एक नयी कविता आज ही पोस्ट की है अगर आप टिप्प्णी दे सकें तो आभारी रहग़ा

डॉ .अनुराग said...

dil ki bat......hai na?