खुश हूँ .... अकेले ही
यादे कुछ अब भी
उनकी, मेरे .... संग है
हर सुबह बन ताज़ी फिज़ा
जिस्म में ..... उतर जाए
चाय के ठंडे प्याले में
तुम्हारी गर्माहट .... घुल जाए
दौडते-भागते बेबस शहरी भीड़ में
बाते तुम्हारी ..... महफूज़ कर जाए
सांझ के चाँद से पूछ हाल तुम्हारा
क्यों तुम दूर ...... हम लड़ जाए
तकिये तले छुपा सब खाब्वो को
तुम्हारे अरमान ....ओढ़ सो जाए
नहीं कहते कभी किसी से
हम बस .....तुम्हे याद कर
हर दिन यूँही अकेले जिये जाए ...
कीर्ती वैद्य .....01 june 2008
2 comments:
कीर्ती जी , क्या बात है। आप तो गुलजार जी हो गई। साथ में एक नई ताजगी भी घुली हुई है। मैने बहुत कोशिश की इस लहजे में लिखने की। खैर नही लिख पाऐ। कभी इसका राज भी बताईऐगा। आपका ब्लोग ब्लोगवानी में नही दिखता। वहाँ की सदस्यता भी ले लिजिऐ।
bahut dino baad itni acchi kavita padhi hai.
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