हाँ रंग, लाल-पीले, हरे-नीले , नारंगी-जामुनी किसके मन नही भाते।
जब मैं छोटी थी तों पीले नन्हे फूलों की क्यारियों में नंगे पाओ थिरकती रहती थी और अपने पेंसिल बॉक्स में ढेरों मोमी रंग इक्ठे करती, कभी घर के दीवारे तों कभी पडोसन आंटी की सफ़ेद साड़ी में भी अपनी पसंद के रंग फूंक देती। यह तों ही जानती हूँ की फ़िर मेरी माताजी मेरे चहेरे को केसे लाल-पीला करती थी।
अपना जन्मदिन भला किसे अच्छा नही लगता और मेरा तों कुछ ज्यादा ही खास दिन १५ अगस्त को टपकता है । सुबह ही मनपसंद लाल रंग की नई फ्रोक पहन, घर की छत पर कभी हरी तों कभी नीली पतंग के पीछे उछलती रहती थी । खेर बदला होगा समय आपके लिए पर मैं आज भी यूँही अपना जन्मदिन रंगीन पतंगो के बीच मानती हूँ।
दीवाली हो या होली घर में रंगोली का काम मुझे कभी नही सौंपा जाता, छोटी बहिन के हिसाब से मुझे रंगो के मेल मिलाप की अक्ल नही है पर यह मेरा दिल जानता है की मैं रंगो को छुए बिना केसे रहती हूँ पर हाँ मैं अपने हाथो मैं रंगोली बनाती हूँ मेहँदी की पिचिकारी से कम से कम वो तों मेरी अपनी निजी सम्पति है और नाखूनों को पूरा गुलाबी नेल पोलिश से सारोबर करती हूँ।
गर्मियों में अक्सर नानी के घर शिमला जाती, वंहा के पहाडी जंगली जामुनी और लाल फूलों की तो मैं दीवानी थी। अक्सर हल्की रिमझिम बरसात के बाद पहाड़ ऐसे धुल कर हरे भरे हो जाते जैसे माँ ने अपने काले मिटटी से भरे बच्चे को नहला नए कपडे पहना दिए हो , आस्मा मामा भी चटक नीली कमीज़ मे हंसते हुए हाथ मे थामे इन्द्रधनुष, घर की चोख्ट पर आ जाते। एक-एक रंग इन्द्रधनुष का अपनी उंगलियों से सप्र्श करती और रेडियो पर चलते किसी पहाडी गीत पर आंखे मींचे सारी कायनात को अपने भीतर महसूस करती।
सच, यह रंग जिंदगी के बहुत मीठे रहे ....इनकी कल्पना मात्र आज भी मुझे तरो-ताज़ा कर जाती है ।
और अब यह दिल्ली की भाग-दौड़ की ज़िंदगी, सुबह जगती है अलार्म की घंटी व ब्रेड ओर बटर के संग । सूरज महाराज का चेहरा तों शाम होते पिल्पिले सडे पीले आम सा लगता है ।
आस्मा की तरफ़ मैं नज़र ही नही डालती, जब देखो कलि चादर से मुँह ढके किसी भूत से कम नही लगता ।
पता नही, मेरे प्यारे मीठे रंग न जाने क्यों और कंहा खो गए है .... कीर्ती वैद्य
4 comments:
achchhaa likhaa hai
कीर्ति बहुत अच्छे लगे आपके रंग।
shukriya Krishan ji & Mamta ji
aapka naari me lekh padhaa baap re kyaa gazan kaa likhtii hai aap
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