अक्सर लोग चेहरे बदल-बदल
अपनी तस्वीरे खीन्च्वाते है
रंगीन फ्रेम में चढा उन्हे
दीवारों पर लटकाते है
बेवजह उनपर नज़र दौडा
अपनी बेवाकुफियो पे हंसते है
अरे, कोई समझाए इन्हे
वो इस तरह का नाटक कर
अपना ही ड्रामा क्यों रचते है
लटकाना ही है तो लटका दो
थके हुए समाजिक ढांचे को
लाचार पडे, कानून को
इक रोटी के टुकडे के लिए
नचाते अपने नेताओ को
मासूम बचपन छीनते
जेब गरमाते उध्यमियो को
अरे.... सच कहती हूँ
लटका दो ऐसे लाचारों को
शायद फिर सच मज़ा आयेगा
उन्हे देख मुस्कुराने का
अब अपनी नहीं,
उनकी बेवाकुफियो पे हंसने का .....
कीर्ती वैद्य....
अपने आस-पास जो महसूस करती हूँ.....शब्दो में उन्हे बाँध देती हूँ....मुझे लिखने की सारी प्रेणना, मेरे मित्र नितिन से मिलती है.... शुक्रिया नितिन, तुम मेरे साथ हो....
7 March 2008
लटका दो.....
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