8 August 2007

लाश

कठघरे में खडी एक लाश
सेंक्ड़ौ सवालो की बोछार
क्यों, अपने ही सीनदुर का
कीया बेदरदी से खून..........................

लाश जोरो से हंसी,
चारो ओर सनाटा छाया
इक सांस में वो जो बोली
सुनीये आप भी उसके अलफाज़.....................

अठर्हा साल की थी जब
बीन पूछे थमायी गयी
इक अजनबी के हाथ डोर
शायाद ये इक रस्म रीवाज़

पुरे बारह साल उसके आंगन
कठपुतली की तरह नाचती रही
बदले में मीलता तीरसकार
ओर दीन की दो सूखी रोटी

माना की मैं घर के बहु
जीसका ना अपना कोई असतीतव
पर इक अपना वजूद तों है
मंजूर नही था की जीन्दा जलु

हाँ उठ्या मैंने इक बेदर्द कदम
अपने अत्याचारो का लीया बदला
जो मुझे जलाना चाहता था, उसे मैंने ही
उठा दीया इस दुनीया से

हाँ मानती हूँ अब ये बात
सडी बरसो पुरानी मैं इक लाश
इक बार फिर मुझे मार दो
अब परवाह नही चाहे ज़ीन्दा जला दो.................................

कीर्ती वैध्या

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