16 July 2007

कांच के टुकड़े

फर्श़ पे बीख्रे कुछ कांच के टुकड़े
रोज एक नया दर्दे -दील लाए
समेटने की कभी जब करुँ कोशीश
हाथ क्या यह दील भी जख्मी होए
हर टुकडा एक सीस्क्ती दास्ताँ का हिस्सा
आंखो को भी पीघ्ला जाय
वो तो जुदा हो गया अब इन्हें कैसे रुकसत करू
अब तो टुकड़े इक हीस्सा मेरी सुनी त्नहाहीयो का...............

कीर्ती वैद्या

1 comment:

Sanjeet Tripathi said...

बढ़िया!!
पर वर्तनी की गलतियां पढ़ने का मजा किरकिरा कर देती है, आशा है आप इन गलतियों को सुधारने का प्रयास करेंगी