फर्श़ पे बीख्रे कुछ कांच के टुकड़े
रोज एक नया दर्दे -दील लाए
समेटने की कभी जब करुँ कोशीश
हाथ क्या यह दील भी जख्मी होए
हर टुकडा एक सीस्क्ती दास्ताँ का हिस्सा
आंखो को भी पीघ्ला जाय
वो तो जुदा हो गया अब इन्हें कैसे रुकसत करू
अब तो टुकड़े इक हीस्सा मेरी सुनी त्नहाहीयो का...............
कीर्ती वैद्या
1 comment:
बढ़िया!!
पर वर्तनी की गलतियां पढ़ने का मजा किरकिरा कर देती है, आशा है आप इन गलतियों को सुधारने का प्रयास करेंगी
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