29 April 2008

कामकाजी नारी

कामकाजी लड़की हूँ , सो सोचा आज कुछ उनकी ही कुछ बात की जाए ।

एक कामकाजी महिला की जिमेदारिया एक घर रहने वाली महिला से अधिक होती है । घर के काम निपटाने के अतिरिक्त उन्हे अपने ऑफिस की जिमेदारियो को भी बखूबी निभाना होता है।

मेरे घर के पड़ोस में चार-पाँच घरेलू महिलाये रहती है जो मेरी उमर से मेरी माँ के उमर तक की है । कई बार में ऑफिस से अधिक काम की वजह से देर रात घर आती हूँ और वो भी अपने किसी पुरूष सहकर्मी के साथ जो उन् महिलाओ के बीच अक्सर गॉसिप का विषय बन जाता है । एक बार उड़ते-उड़ते बात मेरे कानो तक पहुँची तों मैंने उन औरतो की जमकर ख़बर ली ।

आप कहेंगे की इसमे बड़ी क्या बात है ...


बड़ी बात तों है दोस्तो ...अगर इस तरह से एक औरत ही दूसरी औरत पर टिप्न्नी कसेगी तों केसे हम सब औरते बदलाव और समान अधिकार के बात कर सकती है ।

अक्सर अपने ही दोहरे मापदंडो के वजह से ही औरते कभी-कभी मात खाती है और फ़िर अपने औरत होने पर रोती है ।

कीर्ती वैद्य ...

25 April 2008

लवारिश लाश


अभी-अभी गंदे नाले से
मेरी लाश निकाली गयी

कहते है....

फटेहाल, नशे में धुत
मैं आप ही यंहा गिरा
अपनी मौत का, मैं
आप ही जिमेदार हूँ

अरे रोको....

बेवजह हस्पताल वाले
अस्थि -पंजर अलग कर
मेरी पोस्टमार्टम रीपोर्ट
कमज़ोरी से मरा लिख रहे

बेवाकुफो....

यह तो भुझो
क्यों हुआ मैं कमज़ोर
जब सेंकडो धक्के खा भि
नहीं पा सका, मैं नौकरी
भूख रोक अपनी
माँ का इलाज तो करवा गया
पर अपनी मौत
मैं ना रोक सका ....

हाँ डाल दो ....

अखबार की सुर्खियों में
लावारिश लाश की मौत का
अबतक कोई सुराग ना मिला.....

कीर्ती वैद्य ..११ मार्च 2008

ओह ..लड़की हुई है...

महिला जिनके साथ ३२ साल जुड़ी रही, एक खुशमिजाज़ महिला जो घर के हर काम में निपुण थी ।

अपनी ४ बहुओ की लाडली सास। जब भी उनकी कोई भी बहु गरभती होती तों उसके हजारो नखरे सर आंखो पर उठाती ।
कभी उनके सर तेल डालती कभी उनकी रूचि का खट्टा - मीठा पकवान बनाती ।
बच्चे के जनम के समय हमेशा सब से आगे हॉस्पिटल में खड़ी रहती ..कोई समस्या तों नही ....सब ठीक तों हैना डॉक्टर जी।
तभी एक नर्स लेबर रूम से चिल्लाती आती है "माता जी लड़की हुई है" ......और माता जी का पीला चेहरा और वो शब्द " ओह ...लड़की हुई है "

न जाने क्यों यह शब्द मुझे हमेशा उनसे बहुत दूर खींच ले जाते, ऐसा लगता की उन्होने मुझे और अपने को भी गाली दी है।

क्या सच में लड़की का होना अपराध है ? क्या एक औरत को दूसरी औरत का नव स्वागत ऐसे करना चाहिए ?

क्यों लड़कियों और लड़को की परवरिश में भी फर्क रखा जाता है जबकि दोनों एक ही घर के बच्चे है , लड़का होता है तों ढोल पीते जाते है पूरे शहर का मुँह मीठा किया जाता है और अपनी ही बेटी के जन्म पर अपना ही मुँह खट्टा हो जाता है।

देश प्रगति की रहा पर है, शिकषित लोगो की संख्या बढ़ रही है पर हमारी सबकी सोच अब भी वंही के वंही थकी और बीमार पड़ी है

कीर्ती वैद्य .....

दहेज एक पुरानी दिमक

कलम चलाते वक्त याद नही रहता की मैं कौन हूँ , बस याद रहता है वो जो अपनी खुली आंखो से अपने आस पास होता देखती और महसूस करती हूँ

हम नारी होने का दावा करती हैं और नारी समस्या का अवलोकन भी साथ-साथ चलता है पर हम मैं से कितनी है जो हमेशा नारी अत्याचार के पक्ष मैं आवाज उठाती है

मैं दूर नही जाती, अपने घर अपनी ही छोटी बहिन की ही बात आज आपके साथ बाँटती हूँ १६ अप्रैल '०८ को उसके विवाह को आठ साल पूर्ण हुए है मात्र कहने के लिए अपने पति के घर इन आठ सालो में बस कुछ महीने ही बीताये है, कारन वही पुराना घीसा पीटा "दहेज"

अक्सर जब वो अपने सात साल के बेटे के साथ बैठी बाते करती है तों पति हूँ क्या पाया उसने इस विवाह के बदले
वूमेन सेल के चक्कर , कोर्ट और वकीलों की बहस या रिश्तेदरो की बाते ....

आसान नही ऐसी ज़िंदगी जंहा एक लड़की, हाथो में मेहँदी सजा, इक नए परिवेश में जाती है और नए सिरे से अपनी ज़िंदगी को उस माहोल में ढालती है कभी बहु तों कभी पत्नी बन कर , लेकिन क्या ससुराल वालो का फ़र्ज़ नही की उसके लाये समान को तोलने के जगह उसकी मदद करे
अरे, कम से कम औरत होने के नाते ही उसकी सास और ननद इक अच्छा वय्व्हार करे यह कौन सी रीत है की उसे भूखा , हाथ पैर तोड़ उसके, बंद काल कोठरी में मरने के लिय छोड दे

इन्साफ के लिए , औरतो के बचाव के लिए ४९८ नामक धारा तों कानून में है ..पर इन्साफ के लिए कितनी कोर्ट के चक्कर लगाने है यह कंही नही लिखा है ..कितना वकील और कब तक पैसा लेगा यह भी तए नही है

दिल्ली की पटियाला कोर्ट की बात करूँ तों हजारो ऐसे फैसले अभी भी कई सालो से सड़ रहे है और जाने कब वो वंही दम तोड़ देंगे

केवल नुकसान हो रहा है तों उन सताई औरतो का उनके बच्चो के भाविषेयो का जो शायद इसी आस में हर बार कानून के आगे इक अस लिए खडे रहते है की शायद अब आज उन्हे फ़ैसला मिल जाएगा........

फिलहाल इतना ही ओर लिख नही पाऊँगी ...उन बेबस औरतो के चेहरे मुझे रुला रहे है...

कीर्ती वैद्य ....

हमने ज़िन्दगी को...



आज मीठी धूप को अंगना से
नज़र झुकाए गुजरते देखा..
अलसाये मौसम की आँखों में
बेशुमार इश्क उमडते देखा
पीले फूलों की क्यारियों को
प्रेम गीत, गुनगुनाते सुना
भंवरा बेचारा भर रहा
आहे...शायद वो अकेला पड़ा
उदासी के आलम में भि
हमने ज़िन्दगी को, आज
नए रंग में पसरते देखा......

कीर्ती वैद्य २२ अप्रैल 2008

24 April 2008

जब तू ही....


कया गाऊं अब कया गुनगुनाऊ,
जब तू ही मुझे भुला बैठा.
बुझे बेजान लगते सारे रंग,
जैसे कफ़न की बर्फ जमी हो.
रोशनियाँ भी सागर के लहरों सी,
रोती चीखती टकरा गुज़र जाए.
ढलते सूरज का मुखड़ा तो देखो,
बिस्तर पडे रोगी सा दिखता.
शहर भी शाम ढले, अब कोने छुपा,
अपनी बेबसी पर रोता मिल जाता.
मौसम भी अब कर तेरा इंतज़ार,
अपना श्रृंगार कब का भूल बैठा.

कीर्ती वैद्य ...२३ अप्रैल 2008

23 April 2008

फर्क


हाँ, फर्क तो है मुझमें और तुझमें
तु अब भि आँखे फाड़े, होंठ सीए खडा

देख लो...

आज भि जाम मेरे हाथ वैसे ही थमा
कितना तुने रोका कभी समझाया था

मालूम था...

तु बेवफा, मुझे तनहा छोड चला जायेगा
पर ये जाम कभी मेरा साथ ना छोडेगा

जान लो .....

अपनी बेशर्म नंगी खामोशी को
जाम की मदहोशी भि सब समझती है ....

कीर्ती वैद्य २० अप्रैल 2008

22 April 2008

रंग प्रेम

हाँ रंग, लाल-पीले, हरे-नीले , नारंगी-जामुनी किसके मन नही भाते

जब मैं छोटी थी तों पीले नन्हे फूलों की क्यारियों में नंगे पाओ थिरकती रहती थी और अपने पेंसिल बॉक्स में ढेरों मोमी रंग इक्ठे करती, कभी घर के दीवारे तों कभी पडोसन आंटी की सफ़ेद साड़ी में भी अपनी पसंद के रंग फूंक देती यह तों ही जानती हूँ की फ़िर मेरी माताजी मेरे चहेरे को केसे लाल-पीला करती थी

अपना जन्मदिन भला किसे अच्छा नही लगता और मेरा तों कुछ ज्यादा ही खास दिन १५ अगस्त को टपकता है सुबह ही मनपसंद लाल रंग की नई फ्रोक पहन, घर की छत पर कभी हरी तों कभी नीली पतंग के पीछे उछलती रहती थी खेर बदला होगा समय आपके लिए पर मैं आज भी यूँही अपना जन्मदिन रंगीन पतंगो के बीच मानती हूँ

दीवाली हो या होली घर में रंगोली का काम मुझे कभी नही सौंपा जाता, छोटी बहिन के हिसाब से मुझे रंगो के मेल मिलाप की अक्ल नही है पर यह मेरा दिल जानता है की मैं रंगो को छुए बिना केसे रहती हूँ पर हाँ मैं अपने हाथो मैं रंगोली बनाती हूँ मेहँदी की पिचिकारी से कम से कम वो तों मेरी अपनी निजी सम्पति है और नाखूनों को पूरा गुलाबी नेल पोलिश से सारोबर करती हूँ

गर्मियों में अक्सर नानी के घर शिमला जाती, वंहा के पहाडी जंगली जामुनी और लाल फूलों की तो मैं दीवानी थी अक्सर हल्की रिमझिम बरसात के बाद पहाड़ ऐसे धुल कर हरे भरे हो जाते जैसे माँ ने अपने काले मिटटी से भरे बच्चे को नहला नए कपडे पहना दिए हो , आस्मा मामा भी चटक नीली कमीज़ मे हंसते हुए हाथ मे थामे इन्द्रधनुष, घर की चोख्ट पर जाते एक-एक रंग इन्द्रधनुष का अपनी उंगलियों से सप्र्श करती और रेडियो पर चलते किसी पहाडी गीत पर आंखे मींचे सारी कायनात को अपने भीतर महसूस करती

सच, यह रंग जिंदगी के बहुत मीठे रहे ....इनकी कल्पना मात्र आज भी मुझे तरो-ताज़ा कर जाती है ।

और अब यह दिल्ली की भाग-दौड़ की ज़िंदगी, सुबह जगती है अलार्म की घंटी व ब्रेड ओर बटर के संग । सूरज महाराज का चेहरा तों शाम होते पिल्पिले सडे पीले आम सा लगता है ।

आस्मा की तरफ़ मैं नज़र ही नही डालती, जब देखो कलि चादर से मुँह ढके किसी भूत से कम नही लगता ।

पता नही, मेरे प्यारे मीठे रंग न जाने क्यों और कंहा खो गए है .... कीर्ती वैद्य

21 April 2008

मेरी अपनी बात

"नारी" ब्लॉग पर यह मेरी पहली रचना है, यदि कुछ ग़लत लिखूं तों मुझे नासमझ कर माफ़ करे।

अपनी दस साल की नौकरीपेशा ज़िंदगी में मेरे अनुभव कुछ बड़े अजीब और खट्टे रहे लकिन जो भी रहे उनमे अधिकतर मीठे भी रहे पर हमेशा कटु अनुभव कम ही भुलाए जाते है ....

अब से पाँच साल पहले में जिस कम्पनी में काम करती थी ...वंहा के विवाहित मेनेजर ने बेहद निर्भीकता के संग मेरे सामने हमबिस्तर होने का प्रस्ताव रखा , चोंक्ने की बात यह नही की उन्होने ऐसा कहा बल्कि यह थी की मैं उनकी धर्मपत्नी को अगर बता देती तों उनका क्या हर्ष होता यह भी नही सोचा उन्होने ....खेर मैंने भी उनके ही अंदाज़ मैं उन्हे ना का पट्टा दिखा दिया

लेकिन जनाब अभी भी कभी कभी अपना रंग दिखा ही देते थे और मैं उतनी ही निडरता के साथ उनकी बातो का जवाब दे देती थे ..जानती थी की नौकरी तों जानी है पर पहले नई नौकरी तों ढूंढ ले तबतक इन्हे झेल लेते है

एक दिन हम पर कुछ चिल्लाते हुए बोले " यह तुम्हारा ऑफिस है घर नही ढंग से काम करो " मैंने भी उसी अंदाज़ मैं जवाब दिया और वो भी सारे स्टाफ के सामने " सर, मुझे भी पता है ऑफिस है , आपका बेडरूम नही , पर हर बार आप भूल जाते है "उसे दिन जनाब ऑफिस छोड जल्दी घर भाग गए

खेर मैंने इसके बाद भी वहाँ पूरे चार महीने और काम किया और उनकी नाक में दम किया ...आखिरकार नई नौकरी मिल गई और अब जाना था पूरा बदला ले कर ..सो अब मैंने उनसे जानबूझ कर तु-तडाक भाषा का प्रोग करना आरंभ कर दिया ..आखिरकार गुससाये मेनेजर ने मुझे नौकरी से निकाल दिया वो भी मेरी धमकी के अनुरूप मुझे एक महीने की अतिरिक्त आय देकर

आप सोच रहे होंगे के मैंने ऐसा क्यों किया , इस बात पर चुप क्यों बेठी रही ..हल्ला क्यों नही मचाया।

जवाब बिल्कुल सीधा है ......आज भी बड़े बडे महानगरों में यह सब आम हो रह है और लड़किया अपने घर की जिमेदारियो में दबाब में ऐसे लोगो के बहकावे में रही है और मजबूरन ऐसे घटिया कर्मो में धन्स्ती जा रही है

बात पुलिस तक जा सकती है पर क्या हमारा कानून हमे जल्द इन्साफ दे पायेगा ? नही ...कभी नही....

बात उनकी धर्मपत्नी तक जाए तों क्या वो हमारा साथ देंगी या उल्टा हमे ही ग़लत कहा जाएगा...

मैंने अपने हिसाब से उसे, उसके ही स्टाफ के सामने नंगा ही नही किया बल्कि उसे माली नुकसान भी पहुंचाया और अपने लिए नई नौकरी का इंतजाम भी किया


मजे की बात यह रही की मेरे घरवालो को मेरी नौकरी बदलने के बाद इस घटना का पता चला.
...ै

आप के विचार क्या है , इंतज़ार में ....कीर्ती वैद्य

17 April 2008

यादो का सिलसिला..

यार, यह यादो का सिलसिला क्यों होता है...

भूलना चाहते है हम तुम्हे,
फिर भि तू हर वक़्त क्यों पास होता है.

दुनिया से सुना है आस्मा और भि है
फिर यही इक टुकडा मेरे नसीब क्यों है

थमती क्यों नहीं यह बरसात आँखों की
निकलती क्यों नहीं याद तेरी इसे दिल से

दुनिया से सुना है सत्रंगो के बारे में
फिर इक ही रंग मेरे हिस्से क्यों है.

भीड़ है रिश्तो -दोस्तों के इस जहाँ में
फिर भि मैं तन्हा क्यों तेरी याद में

दुनिया से सुना है, प्यार के मीठे एहसास के बारे में
फिर यह कैसेला एहसास हें क्यों तेरे प्यार में

रुक क्यों नहीं जाती यह सांसे अब मेरी
शायद यूँही ख़त्म हो यह अब यादे तेरी

और ख़तम हो जाये यह यादो का सिलसिला भि....

कीर्ती वैद्य ०५ मई २००७

11 April 2008

सिन्दूर

कबर की कच्ची दीवारों में दफनाया जा रहा था
बिन पूछे ही उसकी साँसों को दबाया जा रहा था
रस्सी बंधा तन मछली सा छटपटाया जा रहा था
पिहर की यादो से अंखिया छलकाया जा रहा था
कोख में मेहमान की चिंता में पिघला जा रहा था
हफ्तो से भूखे तन में भि ज़िन्दगी मांगे जा रह था
पीले पड़ते चेहरे से मेरी गलती कया पूछे जा रह था
टूटती हर संवाद्नाओ में भि आस पकडे जा रह था
आज, अपना ही सिन्दूर लो उसे मिटाए जा रहा था......

कीर्ती वैद्य.....०६ अप्रैल २००८

9 April 2008

तू और मैं .....

तू बोल, मैं बस तुम्हे सुनतीे रहूँ
कुछ तलक तेरे पास यूँही बेठी रहूँ

ओढ़ तेरी बातो का गुलाबी आँचल
रब से तेरी दुयाये यूँही मांगती रहूँ

तू गाए गीत मैं बस तुझे तकती रहूँ
कुछ पहर तुझ संग यूँही बीताती रहूँ

पिरो सुरों की कंठमाला, कर अर्पित
रब को, बस तुझे यूँही चाहती रहूँ

कीर्ती वैद्य......१३ मार्च २००८

7 April 2008

मैं कौन ...


आज भि यही सवाल मेरे ज़हन
ढूँढ रही ना जाने कब से, मैं कौन?

शायद वो...
जो गुडयिया से घर-घर खेले
नाक -चश्मा, काँधे बस्ता
कच्ची सड़क नाप, सकूल पहुँच जाये
रोज़, ढूध इक सांस में गटक
घंटो साईकल लिए फिरे

शायद वो....
गीतों के धुन पे मोरनी बन नाचे
कटी पतंगो,कभी तितलियों के पीछे भागे
रोज़ घुटने कभी कोहनी चोट खाये
माँ की डांट पर कोने बैठ मुँह फुलाये
बहना से लड़ उसकी टोफ्फी चुरा खाये

शायद वो...
चोरी से सिगरेट के छल्ले बनाना सीखे
कभी बियर के बोतलों में ज़िन्दगी ढूंढे
कभी इक सांस में मंदिर की सीढिया चढ़े
कभी सालो इश्वर को अपने में ही ढूंढे

शायद वो...
बिन परवाह किये बिन सब बंधन तोड़ दे
अपनी हथेली सजी मेहंदी को ही रोंद दे
कभी बन पहाड़ घर-परिवार संभाले
कभी शोला बन दुनिया फूंक डाले ..

शायद वो...
इंसानी रिश्तो को बारीकी से समझे
कभी उन्ही रिश्तो में छली जाये
आधी अधूरी ज़िन्दगी को हाथो में समेटे
कभी दुनिया को अलविदा कह जाये

फिर भि अब तलक ना पता
मैं कौन ... ?

कीर्ती वैद्य ....०५ अप्रैल २००८

1 April 2008

इक खबर .........



पावन मंत्रों का उच्चारण
गूंथे गीले बालो की चुटिया
पल्लू को संभालती
लाल टिकुली माथे सजाती
"बहु - जल्दी चाय दे दे '
मुस्करा रसोई में जा
चूल्हा जलाती.......
आहुति बन अग्नि में
अपना अस्तित्व खोती
बन एक खबर.......
नामी अखबार की
कोने में सहजी
"दहेज- इक ओर बलि चढी "

कीर्ती वैद्य ...३१/०३/२००८