13 December 2007

जानती हूँ, जवाब.....

इक आख़री चीठा उन्हे आज लिखा है
आर नहीं तो पार होने का संदेसा दिया है

जानती हूँ, जवाब.....

सारे दिए आप बुझा दिए है
अपने दिल को समझा लिया है

जानती हूँ, जवाब.....

तभी तो अपने को जाम में डुबो दिया है
हर लम्हे को आँसुओ से धो दिया है

जानती हूँ, जवाब.....

हर याद को धुएं में उडा दिया है
हर ज़ख्म को दुनिया से छुपा लिया है

जानती हूँ, जवाब.....

अपनी राह को बदल दिया है
अपने वजूद को ही ख़तम कर दिया है

जानती हूँ, जवाब.....

कीर्ती वैद्य

3 comments:

Ramesh Ramnani said...

बहुत खूब मै आपकी हर कविता को पढ़ता हूँ। बहुत खूबसूरत लिखती है आप। लेकिन आपकी इस कविता में मायूसी का आभास होता है। मै समझता हूँ अपनी राह को बदलने से कोई समाधान होता है। हम अगर अपनी राह की दिशा बदल लें तो अपनी दशा अपने आप बदल जायेगी। इन्सान को अपनी सोच की दिशा बदलना अत्यन्त आवश्यक है इससे सोच की दशा बदल जायेगी और फिर नई राह नये दिये जलने शुरू हो जायेंगे।

रमेश

रंजू भाटिया said...

बहुत सुंदर लिखा है आपने ...

Dawn said...

MashaAllah! kavita to bakhubi likhi hai aapne lekin ek dukhmayi ehasaas ya khalipan chor gaya!
Dua hai ke aap kheriyat aur khushfehami mein rahein (ameen)
Cheers