7 December 2007

रिश्ते

सुना था, रिश्ते अजीब होते है
कुछ उलझे कुछ नासम्झे
कभी बनते कभी बंटते
कभी इस डाल कभी
उस डाल झूलते रिश्ते
मैं इक बेपरवाह
कब यह समझी
प्यार के डोर में बंधी
उड़ती रही बन हवा
सोचा कब...
कट जाउंगी इस तरह
उलझ रह जाउंगी
रिश्तो के जाल में इस तरह

कीर्ती वैद्य

3 comments:

anuradha srivastav said...

लिखती रहिये आपको पढ कर अच्छा लगा।

Sourabh Gupta said...

U know i didn't belive in relation but after read ur poem ... u know... it's really gud

डाॅ रामजी गिरि said...

"सोचा कब...
कट जाउंगी इस तरह
उलझ रह जाउंगी
रिश्तो के जाल में इस तरह "

रिश्तों की उलझनों पर खूबसूरत रचना.