30 November 2007

अपने प्यार की रस्म

बैठे रहो मेरे पास
ना जाओ कंही आज
इन आखरी पलो का साथ
तुम्हारी सांसो का एहसास
जी लेने दो अपना यह प्यार
फिर बिखर जायगी,इक काली रात
ना छोडो मेरा हाथ
कुछ पल बाद आप छुट जाएगा साथ
बह जाने दो अपने ज़सबातो को
फिर कौन सुनेगा, मेरे जाने के बाद
ऐसे ना छुपाओ अपनी भीगी पालकी
ना पौछेंगा कोई, मेरे बाद
देखो उस चाँद को, वो सब जानता है
कैसे हममे जुदा होते, तक रहा है
जब आयेगी तुम्हे मेरी याद
तुम भी ऐसे ही चाँद को तकना
मैं काले अम्बर पर भागती आऊंगी
हवा बन तुमसे लिपट जाउंगी
अपने प्यार की रस्म मरकर भी निभाउंगी...................

कीर्ती वैदया...

4 comments:

राजीव तनेजा said...

बहुत खूब...सच कहूँ तो सबसे प्यारी कविता लगी ये वाली आपकी ...

आप लिखती रहें...
हम पढते रहें....

डाॅ रामजी गिरि said...

बहुत खूब कीर्ति जी . प्रेम की दीवानगी कोई आपसे सीखे . . सुन्दर पंक्तियाँ है .

Ashish Maharishi said...

yh srif kavita nahin ho sakti hain...

Anonymous said...

bahoot khoob likha hai.poori sadagi aur pakijagi ke saath choo lene wala ahasas.