जाड की बेरंगी शाम
दौडते शहर की सड़क
चुपी की चादर ओढ
घंटो मेरा इंतज़ार
याद है, तुमहें......
मोल-तोल के पीछे
ठेलेवाले से बहस
मेरे हंस जाने पर
आप ही झेंपना
याद है, तुमहें......
वो शाम बीते
कई बरस होए
स्मृतीपटल के
चीत्र, शेष अब
हाँ, अब कंहा याद, तुमहें......
मैं न रही
ये भी न होंगे
शेष कभी..
कीर्ती वैदया..
दौडते शहर की सड़क
चुपी की चादर ओढ
घंटो मेरा इंतज़ार
याद है, तुमहें......
मोल-तोल के पीछे
ठेलेवाले से बहस
मेरे हंस जाने पर
आप ही झेंपना
याद है, तुमहें......
वो शाम बीते
कई बरस होए
स्मृतीपटल के
चीत्र, शेष अब
हाँ, अब कंहा याद, तुमहें......
मैं न रही
ये भी न होंगे
शेष कभी..
कीर्ती वैदया..
3 comments:
Felt nostalgic, while reading it
"मैं न रही
ये भी न होंगे
शेष कभी.."
अच्छी पंक्तियाँ है जीवन के सलेटी सच को उजागर करती .. पर ज़िन्दगी यादों के आगे भी बहुत कुछ है..
अच्छा प्रयास...जज़बातों को सुन्दर ढंग से पेश किया आपने
Post a Comment