6 February 2008

याद है, तुमहें......

याद है, तुमहें......

जाड की बेरंगी शाम
दौडते शहर की सड़क
चुपी के चादर ओढ
घंटो मेरा इंतज़ार

याद है, तुमहें......

मोल-तोल के पीछे
ठेलेवाले से बहस
मेरे हंस जाने पर
आप ही झेंपना

याद है, तुम्हे......

वो हाथ पकड़ घूमना
बच्चों को खेलते देखना
और कल्पना की उडानें भरना
ताने बने बुनना

याद है तुम्हें ......

वो छोटी मोटी बातें
वो लड़ना झगरना
वो तुम्हारा मनुहार
और मेरा मान जाना

याद है तुम्हें ......

वो शाम बीते
कई बरस होए
स्मृतीपटल के
चीत्र, शेष अब

हाँ, अब कंहा याद, तुमहें......

मैं रही
ये भी होंगे
शेष कभी......

कीर्ती वैद्य...

5 comments:

Anonymous said...

fantastic feeling in words,kuch gujre zamane yaad huye.sahi bhi kaha main na rahungi ye bhi nahi rehenge.yaadein kahi reh jati hai.

Sandeep said...

जितनी सरल उतनी ही प्रभावी है आपकी यह कविता.....इस सफल कोशिश के लिए आपको बधाई

Poonam Agrawal said...

Tum bevafaa ho bhee jao to kya
tumhaaree yaade to vafaa karengee.
Ek saralta hai peshkush mein.
Very well.

अवनीश एस तिवारी said...

good effort !!!
likhate jayen

avaneesh

tarun said...

kuch beete din yaad aa gaye
tumhare lafz
kuch aise utre zehan mein
aaj achanak phir se
hume wo yaad aa gaye

keep it up.

-tarun
http://tarun-world.blogspot.com