अपने आस-पास जो महसूस करती हूँ.....शब्दो में उन्हे बाँध देती हूँ....मुझे लिखने की सारी प्रेणना, मेरे मित्र नितिन से मिलती है.... शुक्रिया नितिन, तुम मेरे साथ हो....
26 February 2008
"काश मिल पाती"
काश उतनी बेबाकी से मिल पाती
शाम ढले, काले अम्बर फैले
तारो को हाथो से चुन पाती
भर सतरंगी आँचल अपना
प्रेम तुम पर बरसा पाती
अनकही वो सब बातो का
काश, सारा हिसाब ले पाती
सूनी बैरंग शामो को
तुम संग गुलाबी बना पाती
कीर्ती वैद्य.....
सवाल
तो हाथो में समेट लूँ
मन भर कर अफ़सोस
फ़िरे बहार फेंक भि दूँ
पर आज कया करूं?
दिल अपना टूटा सा है,
इन फ़ैली भावनाओ को
सुलझाऊ तो केसे?
बिखरी बिखरी बातो को
बताऊँ भि तो किसे ?
अजीब होते है बंधन
निभाऊ भि तो केसे?
कुछ ऐसे ही ...
ढेरों सवालो का अम्बार
बरसाऊ भि तो किस पे?
कीर्ती वैद्य.....
22 February 2008
"प्राथना"
घर तेरे आ....
तुम देखते हो
पथरायी आँखों से,
पत्थर सा होता मुझे.......
अपनी भडास, डाल देखूँ ,
कब तुम कुछ बोलों.....
भुझी शकल पर
कभी तो नज़र डालो, तुम.....
थक गयी रोज़
तेरे दर आ-आ
कभी तुम भि कह दो
मैं भि पक गया "कीर्ती"
तेरे रोज़ यंहा आ जाने से
जा चली जा, ना पड़े अब
कभी जरूरत यूँ रोज़
तुझे मरने की.....
जानती हूं,
ना कहोगे ऐसे कभी तुम
अरे, फ़िर बिन मुह खोले,
बुला लो ना मुझे अपने पास....
कीर्ती वैद्य(कुछ ऐसे ही हम अपने भगवान् से बतियाते है)
21 February 2008
मन
फिर भि पिघला गयी,
बावरे मन को.............
बातो का जाल ही तो था,
फिर भि बाँध गयी,
जोगी मन कों.............
स्नेह की डोर ही थी,
फिर भि जोड़ गयी,
टूटे मन कों............
स्पर्श मात्र धडकनों का था,
फिर भि बहा गया,
निर्गुण मन कों..............
कीर्ती वैद्य....
20 February 2008
झूठ
कितने सवालो का अम्बार
उफ़.....
कंहा और केसे समेटू
किस सिरे को पकड़
किस ओर तह मोडू
हाँ ....
सिमट तो जायेगा
ओर सहज भि
पर कब तक
यूं झूठ नापू
कीर्ती वैदया
18 February 2008
उमड़-घुमड़
खोल पट, छुआ शीतल स्पर्श
इक मधुर स्वर गुंजन,
किसी अभिलाषा का स्पंदन
गगरी से छलकी नमकीन बूंदे
भर आँचल, चुगती तारे
जोड़ यादे, पिघलती राते
खींच बादल, कुम्हलाती बाते.........
कीर्ती वैद्य
15 February 2008
अजीब बात
बे-वजह हमारा रोज़ हाल चाल पूछा, बड़ी फुरसत से हमारे साथ चाय का प्याला थामा ।
एक दिन हमने यूँही कह दिया भाई अपने जो टोपी पहनी है, यह किसी ओर के सर पर मैंने देखि है। लो, हो गए वो शुरू.....अंडे क्या, पडे हमे दुनिया जहाँ के डंडे....कमाल की बात तों यह की हमे दुनिया का सबसे बड़ा "भ्रमित इंसान " के नाम से नवाजा। हम पर नकारा ओर फालतू का इल्जाम डाला।
उनकी इस हरक़त से हमने मोहल्ला क्या अपना बचपन का शहर भी त्यागा।
लेकिन हद तब पार हुई जब फ़िर एक दिन उन्हे अपना दरवाजा खटखटाते पाया। दांत उनके बहार, वही बेरहम मासूम हँसी छलका वो बोले " दीदी, छोटे भाई को माफ़ी न दोगी , छोडो, अब वो पुरानी बात ....नए घर ओर शहर में हमे चाय नही पूछेंगी।
हमारी तों जान निकल गई क्या अब यह हमसे चाहते है ..खेर अपने ज़स्बतो को दबा हमने पूछा, भाई जी हमारा पता आपको किधर से मिला ?
बड़ी नमर्ता से फ़िर हमारे भाई बोले हम दीदी अब आपके ही शहर में शिफ्ट हो गए है ओर इश्वर के कृपा से आज फ़िर आपके पड़ोसी बन गए है। जैसे ही हमने पड़ोस के दरवाजे पर नज़र दौडाई आपके नाम के नेम प्लेट पाई, तुरंत समझ गए अपनी प्यारी बहना का घर है , फ़िर काहे के शर्म ओर बजा दी घंटी।
अब तक हम समझ गए थे फ़िर बदलना होगा हमे अपना घर, लकिन अबकी बार बस घर ओर मोहल्ला न के शहर ...
कीर्ति वैद्य....
13 February 2008
चाँद
अपना चाँद कह गए
सारी रैना, खिड़की खोले
चाँद तकते रह गए
अपना तों क्या, हम
अपनी जान को, सोचते चले गए
छु उंगलियों से चाँद, हम
उनकी चाहतो में डूबते गए
फैला बाहों को हम
प्यार का नगमा गुनगुनाते गए
रब से अपने चाँद का हम
जिन्दगी भर का साथ मांगते गए......
कीर्ती वैद्य
11 February 2008
गोवा मेरे चश्मे से -भाग १
घूमने के लीए हमने किराये की बाईकस ली...ओर चल पड़े शहर घूमने...सबसे पहली नज़र वंहा बने घरो में गयी ...सुंदर छोटे -छोटे घर जो केले ओर नारियल पेडो से घिरे थे।
खैर, हमारा पहला पड़ाव सेंट फ्रांसिस चर्च था, जो सबसे पुरानी ओर मान्य चर्च है, यंहा मोमबत्ती ज़ला जो भी मांगे, पूरा होता है , ऐसा मुझे एक स्थानिये निवासी ने बताया।
वैसे तों हर मोड़ पर एक चर्च है ओर हर चर्च के बनावट दूसरी चर्च से अलग है, लेकिन सच मुझे सेंट फ्रांसिस चर्च में शांति का अनुभव हुआ । इस चर्च में फादर फ्रांसिस कि मृत देह संभाल कर ज्यूँ की त्युं रखी गयी है ।
सेंट फ्रांसिस चर्च
बाहरी और भित्री दृश्य
अगले भाग में पढे गोवा के फोर्ट अगोढा , समुंदरी तट और होटल्स व खानापीना , शॉपिंग....
कीर्ती वैद्य ...
सेल- दिली की
दुकानों में सेल का वायरस फैला,
इधर- दौड़, उधर-देख, जिधर देख,
भारी गिरावट का सुचांक टंगा,
महिलाये के संग, बच्चो का भी बोलबाला,
ले लो मैडम, ५०% ड़िसकाउंट ओर कंहा,
आपकी साड़ी के संग, नैल्पोलिश बस यंहा
गोल्ग्पे फिर , पहले ७०% सेल का ले मज़ा
बेचारे पतिदेव, बजा उनकी जेब का बाजा
अरे न डरो, क्रेडिट कार्ड जो है धरा
दिलवा दीजे, वो गर्म लाल दुशाला
ओर चुनू का मनपसंद कला चश्मा
रोज़-राज़ नही लगती सेल ऐसी भइया
तों काहे खडे सुन रहे, मेरी माने
आप भी चले भागे आये दिली....
कीर्ती वैदया..
ऐ रंगरेज .....
ऐ रंगरेज .....
सब रंग हैं न तेरे पास .......
भर दो पीत मेरे बचपन को
बाबुल के संग जब मैं रहती हूँ
इठलाती इत उत जब फिरती हूँ
रोती माँ है मैं जब गिरती हूँ
फिर बाबु जी की गोदी होती हूँ
ऐ रंगरेज .....
भर दो नील मेरे अल्हर्पण को
जब मैं तितली सी उड़ती हूँ
ले बलाएँ दादी कहती है
कैसी सुंदर नील परी हूँ
ऐ रंगरेज .....
भर दो गुलाबी मेरे यौवन को
जब मैं यादों का पनघट हूँ
टूटे फूटे सपनों का अम्बर हूँ
धुंधली भूली टूटी खंडहर हूँ
ऐ रंगरेज .....
हर लो न यह कला रंग
मैं फिर जीना चाहती हूँ
वह बचपन के छोटे मोटे पल
जब दुनिया अच्छी है मैं भोली हूँ .....
ऐ रंगरेज .....
दे दो न मुझको यह हरा रंग
बोलो न .....
क्या दोगे मुझको अपना इन्द्रधनुष ...
ऐ रंगरेज .....
कीर्ती वैद्य
6 February 2008
याद है, तुमहें......
जाड की बेरंगी शाम
दौडते शहर की सड़क
चुपी के चादर ओढ
घंटो मेरा इंतज़ार
याद है, तुमहें......
मोल-तोल के पीछे
ठेलेवाले से बहस
मेरे हंस जाने पर
आप ही झेंपना
याद है, तुम्हे......
वो हाथ पकड़ घूमना
बच्चों को खेलते देखना
और कल्पना की उडानें भरना
ताने बने बुनना
याद है तुम्हें ......
वो छोटी मोटी बातें
वो लड़ना झगरना
वो तुम्हारा मनुहार
और मेरा मान जाना
याद है तुम्हें ......
वो शाम बीते
कई बरस होए
स्मृतीपटल के
चीत्र, शेष अब
हाँ, अब कंहा याद, तुमहें......
मैं न रही
ये भी न होंगे
शेष कभी......
कीर्ती वैद्य...
4 February 2008
मैडम से भीखारन
सीट मिलगी, तो मैडम टिकेट लेगी
वर्ना, खडे होने की एवज मे, मुफ्त जाएँगी...
कंड़कटर भि कम ना निकला
ड्राईवर को दे निर्देश, जोर से बोला...
अब गाड़ी का ब्रेक , सीधा अपने घर जा लगेगा,
आज मैडम हम संग मुफ्त जाएँगी......
मैडम के तेवर हुए अब तीखे
सवारियों को संबोधित कर बोली
भला अब गुंडागर्दी बस मे चलेगी
अकेली जान समझ, छूरी मुझपे चलेगी
अरे, नहीं जाना तेरी बस मे भईया
रोक अभी रोक, अभी मुझे उतरना ....
वाह मैडम जी, आप भि कमाल करती
टिकेट माँगा तो बदमाश लगे
घर ले चले तो भाई लगे
काहे को चलाती हो हमे
दस का टिकेट तो है
चुपचाप काहे नहीं लेती हो
वर्ना, हम भि कम नहीं
मैडम से भीखारन का खिताब
अभी आपको देते है.....
कीर्ती वैद्य...
ज़िन्दगी के पन्ने....
बस अपना-अपना किरदार निभाना होता है
उसके अनुसार अपने को ढालना पड़ता है
कभी मस्त- कभी बेकार लगे रोज़ का नाटक
क्यों नहीं कोई फाड़ देता इन पन्नों को
या फिर ख़त्म हो अपना किरदार, यंहा पर
कीर्ती वैदया.............