28 June 2007

“मिट्टि”


पानि को कभि बहते देखा है,
शान्त् नीर्मल् शीतल्
बीना रुके वोह् चल्ति है
तुफ़ान् पहाड् रुकवाट्
बीना थमे वोह् चल्ति है,
कीनारे कि मिट्टि को भी व्हा ले जाति है…..

ज़ीन्दगी भि तो ऐसी ही है
बीना सोचे थके रुके चल्ती है
बस् रुक् तो हम् जाते है
आप्ने ही गम् से अप्नी परेशानियो से
आप्ने हे उल्झ्नो से अप्ने ही दायरौ से
फीर् भि कीर्ती बह्ना पर्ता है
ज़ीन्दगी के तोफ़ान् मै ज़िन्डगि के बहव् मै

शयाद् त्भी इन्सान् मिट्टि है….

ईट्स् माइन्…कीर्ती वैद्या

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