अपने ही शहर, अनजान बनी घूमती
दुनिया के भीड़ में, अपने को तलाशती
भरे बाजारों में, अपनी ख्वाशियो को तोलती
नंगी बेहया नजरो से, अपने को छुपाती
कड़वे ज़हर को, चुपचाप कंठ से उतारती
कोने में छुप, अपने पर ही रोती - हँसती
भागती ज़िन्दगी में, अपना ही दम तोड़ती
कुछ इस तरह, वो रोज़ जी लेती
कीर्ती वैद्य
3 comments:
"अपने ही शहर, अनजान बनी घूमती
दुनिया के भीड़ में, अपने को तलाशती"
ये तलाश तो कमो-वेस सबकी है ...दर्द ना हो तो खुशी की शिद्दत महसूस नहीं होती...
इतनी विसंगतियों में भी जी लेती है तो मानना पड़ेगा उसे... शुभकामनाएँ
Kirti ji, it was nice to read your poem. Keep it up !!....God bless
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