27 November 2007

नन्हा सपना

आँख का अंधेर गलियारा
इक रोता नन्हा सपना
सूर्ये कीरण छुए
रात चांदनी
हंसा पाए
कई दीन का भूखा
सुस्त चाल लीए
खामोश धड़कन
भी रो जाए
दस्तक सुन, आस लीए
इक सांस में, हंस जाये
पा, फीर मुरझाये
गुमनाम, फीर
जीए
चला जाये.....

कीर्ती वैदया..

2 comments:

राजीव तनेजा said...

कीर्ति जी कविता बहुत पसन्द आई...अच्छा लिखा आपने
लेकिन एक बात फिर से कहना चाहूँगा कि आप अगर अपनी ग्रामैटिकल गल्तियों को ठीक कर लें तो आपकी रचनाएँ और ज़्यादा प्रभावी होंगी...
अगर इस बारे में कोई मदद चाहिए तो बन्दा हाज़िर है...

Keerti Vaidya said...

galti sudhar de hai...thnxs