16 July 2008

शहर

जी, यह शहर बहुत अजीब है...
चाँद छुपने से पहले जग जाए
रात के अलसाए खाव्बो को, किनारे रख
दफन ज़िन्दगी के बासी अफसानो को
अखबार की सुर्खियों में ढूंढता है ...

जी, यह शहर बहुत सख्त है...
इंसानियत का मखोटा उतार,
साहब तो कभी गुलाम नामक
इक प्लास्टिक लेबल चिपका
पेट की बेबस भूख तो कभी
दुनियादारी के रिवाजो के लिए
झूठ के आगे आँखों का पर्दा खींच,
सेंकडो सच डकार जाता है
भीगी बिल्ली बन खोखली हंसी हंस
ना जाने कितनो के सपने डसता है...

जी, यह शहर कुछ नमकीन है...
अपनी ख्वाशियो के छल्ले, धुएं में उडाता
ज़िन्दगी बस इक कड़वा घुंट, यही समझ
हर शाम, अपनी बेहयाई का जाम गटकता
तंग गलियों से कभी गुजरे तों,
बेबस हालातों पर सिसक जाता है
कभी, भरे बाज़ार अपनी ही नीलामी पर,
लाचारी-बेबसी का मातम मनाता है

जी, यह शहर फिर भी अपना है ...

कीर्ती वैद्य....10/july/2008

10 comments:

राजीव तनेजा said...

शहर के मुश्किल हालातो6 पर रौशनी डालती आपकी कविता अच्छी लगी...लिखती रहें

रश्मि प्रभा... said...

जी, यह शहर फिर भी अपना है ...
इस एक वाकया में बहुत कुछ है,बहुत ही अच्छी....

डाॅ रामजी गिरि said...

सार्थक और यथार्थवादी रचना...

ilesh said...

simply great......

kishore said...

bahoot sunder.
हाँ तेरा ये शहर वाकई बहुत अजीब है
हर रोज पूछता है तू यार है के रकीब है .

seema gupta said...

जी, यह शहर फिर भी अपना है ...
"very nice and true"

Smart Indian said...

बहुत अच्छे, वैद्य जी.

Anonymous said...

Keerti Ji,
Bahut achchhi rachna hai aapki. Badhai

विक्रांत बेशर्मा said...

जी, यह शहर कुछ नमकीन है...
अपनी ख्वाशियो के छल्ले, धुएं में उडाता
ज़िन्दगी बस इक कड़वा घुंट, यही समझ
हर शाम, अपनी बेहयाई का जाम गटकता
तंग गलियों से कभी गुजरे तों,
बेबस हालातों पर सिसक जाता है
कभी, भरे बाज़ार अपनी ही नीलामी पर,
लाचारी-बेबसी का मातम मनाता है

जी, यह शहर फिर भी अपना है ...


बहुत अच्छी नज़्म है !!!!!!!!!

Rajat Narula said...

awesome poem....simply great...