19 December 2007

क़ैद

कई दिन बाद कमरे में आना हुआ सब सहजा,
जैसे कुछ बदला ही ना
वही कुर्सी व छनी धूप के कण

मंद हवा से उड़ते फैले सूखे पत्ते

धूल चढी हंसती तस्वीरो का रंग
सब धुंधला था,
कुछ शेष था,
गूंजती कानो में पुरानी बाते
क़ैद जो मेरी स्मृति में ना कीसी कमरे में....


कीर्ती वैद्य

3 comments:

RC Mishra said...

बहुत अच्छा स्मृति कक्ष!

Rachna Singh said...

nicely expresed

डाॅ रामजी गिरि said...

"कई दिन बाद कमरे में आना हुआ ....
.....धूल चढी हंसती तस्वीरो का रंग सब धुंधला था....
क़ैद जो मेरी स्मृति में ना किसी कमरे में...."

Bahut sundar..la-zawab kavita.
Now let those memories go out thru those windows....