अपने आस-पास जो महसूस करती हूँ.....शब्दो में उन्हे बाँध देती हूँ....मुझे लिखने की सारी प्रेणना, मेरे मित्र नितिन से मिलती है.... शुक्रिया नितिन, तुम मेरे साथ हो....
31 March 2008
हमे आज फिर....
हाथ रख कितना भि चाहे रोकू इन्हे
आँखों से बन आंसू दिल पिघला जाये
कितना भि भाग, परछाइयों से बचा जाये
ज़िन्दगी फिर मुलाकात उनसे करवा जाये
उफ़...यह दर्द देती सिस्किया...
हमे आज फिर बर्बाद ना कर जाये...
कीर्ती वैद्य ......२९ मार्च २००८....
28 March 2008
क्यों ???
शायद अपनी ही हस्ती मिटाती हूँ
कागज़ की नाव बना, पानी में बहा
डूबते देख फिर आप ही क्यों रोती हूँ
पता है जब मिटटी के घर कच्चे है
फिर भि सपना उनका क्यों बुनती हूँ
अरे, कोई तो समझा दे मुझे, फिर
मैं क्यों बरिशो में भि पयासी रहती हूँ.......
कीर्ती वैद्य ........२८ मार्च २००८
20 March 2008
पता नहीं कब से ....क्यों मैं तुम्हारी हूँ
पता नहीं कब से ....क्यों मैं तुम्हारी हूँूँ
आँगन मैं सूखे पतों की फुर्फुराहट
मेरा डर के तुम्हारे सीने लग जाना
ओर वो तुम्हारा जोर जोर से हँसना
मेरा गुस्से में बरामदे मैं बैठ जाना
ओर वो तुम्हारा मुस्का कान पकड़ना
मेरा तुमसे फूलों की सा लिपट जाना
पता नहीं कब से ....क्यों मैं तुम्हारी हूँ
सांझ ढले नदिया किनारे आंखे मींचे बैठना
कांधे तेरे सर रख, मेरा वो गुनगुनाना
ओर वो तुम्हारा मुझपे पानी छिन्टना
मेरा गीत छोड तुम पर चिल्ला जाना
और वो तुम्हारा बच्चों सा लाल चेहरा
मेरा फिर तुम्हे प्यार से बाहों में भरना
पता नहीं कब से ....क्यों मैं तुम्हारी हूँ
कीर्ती वैद्य १७ मार्च २००८
17 March 2008
जब हम मिल जाएँगे.....
हाँ, इक दिन वो आयेगा
जब हम मिलेंगे...
इक गर्म चाय के संग,
हम बातो मैं घुल जाएँगे.
कुर्मुरे चिप्स चटकाते,
करीब थोरा ओर आ जाएँगे.
कोसी-कोसी धुप तले,
प्रेम-प्रीत में भर जाएँगे
ठंडे पानी के गिलास संग,
मीठे सपने संजो लेंगे.
तंग भरी सड़क पे चलते-चलते,
हम भि ज़िन्दगी पकड़ लेंगे.
भुट्टे का नींबू-मसाला चख
अपना भि घर बसा लेंगे
हाँ, इक दिन वो आयेगा
जब हम मिल जाएँगे.....
कीर्ती वैद्य.....
14 March 2008
तुम
तुम रोज़ मिलो या ना मिलो..
तुम्हारी याद , बन, मीठी धूप
रोज़ मेरे अंगना परस जाए
बेवजह ही सुने आंचल
ख्वाशिये हजारों भर जाए
भीनी-भीनी तेरे सांसो की महक
मेरी रूह में गुपचुप उतर जाए.
तुम बात समझो या ना समझो...
तुम्हारी कशिश, बन इक चाहत
रोज़, मेरी बगिया महका जाए
बिन परो के ही बन तितली
तेरी प्रीत मैं मन झूम जाए
चुग चुग कर तेरी बाते को
कोयल सा मीठा गीत बन जाए
तुम जानो या ना जानो....
कीर्ती वैद्य ...
13 March 2008
सिलसिला .....
कया है, सिलसिला जो तुमसे जुड़ गया....
पलकों पे आ इक खाव्ब रुक गया
लबो पे तेरा नाम गुनगुना गया
सुबह हमारी फूलों से महका गया..
कया है, सिलसिला जो तुमसे जुड़ गया....
फूलों सा नम औंस से भीगा गया
चाँद के टुकड़े से हमे दमका गया
सावन के हिंडोले में झुला गया..
कया है, सिलसिला जो तुमसे जुड़ गया....
दिए के ज्योत जैसे जला गया
मंदिर्यालय की घंटियों सा बज गया
पावन श्लोको सा बरस गया..
कया है, सिलसिला जो तुमसे जुड़ गया....
कीर्ती वैद्य .........
10 March 2008
इंडिया गेट और कवियो का संग
कल दिनांक ०९ मार्च'०८, हम कुछ कवि जन इंडिया गेट में इकठा हुए थे..
कुछ उनकी और अपनी कवीताये हमने एक-दूजे संग बांटी....
उपस्तिथ कवि -
१ अनिल जी (मासूम शायर)
२ दुष्यंत जी
३ कीर्ती वैद्य
४ विकास (जानुमानु)
५ विशेष
६ अवदेश
मैं यह बताना जर्रुरी समझती हूँ की हम सब पहली बार एक दूजे से एक साथ मिले वैसे तों हम सभी ई -मेल और टेलीफोन से जुडे है और मिलने का कारन सिर्फ़ कविताये ही नही अपितु हम सभी जन मिल अपनी पुस्तक प्रकाशित करवाने की पहल भी कर रहे है।
कुछ तस्वीरे हम सभी की :-
7 March 2008
लटका दो.....
अक्सर लोग चेहरे बदल-बदल
अपनी तस्वीरे खीन्च्वाते है
रंगीन फ्रेम में चढा उन्हे
दीवारों पर लटकाते है
बेवजह उनपर नज़र दौडा
अपनी बेवाकुफियो पे हंसते है
अरे, कोई समझाए इन्हे
वो इस तरह का नाटक कर
अपना ही ड्रामा क्यों रचते है
लटकाना ही है तो लटका दो
थके हुए समाजिक ढांचे को
लाचार पडे, कानून को
इक रोटी के टुकडे के लिए
नचाते अपने नेताओ को
मासूम बचपन छीनते
जेब गरमाते उध्यमियो को
अरे.... सच कहती हूँ
लटका दो ऐसे लाचारों को
शायद फिर सच मज़ा आयेगा
उन्हे देख मुस्कुराने का
अब अपनी नहीं,
उनकी बेवाकुफियो पे हंसने का .....
कीर्ती वैद्य....
5 March 2008
ऐसे ....
जो बोलती नहीं होंठो पे लाके
चाँद को छूती हूँ रोजाना ही ऐसे
पलकों को खोलू उन्हे याद करके
ज़िन्दगी जीती हूँ बस मुस्काके
प्यार मांगती हूँ बस उन्हे पाके
कीर्ती वैद्य......