14 March 2008

तुम




तुम रोज़ मिलो या ना मिलो..

तुम्हारी याद , बन, मीठी धूप
रोज़ मेरे अंगना परस जाए
बेवजह ही सुने आंचल
ख्वाशिये हजारों भर जाए
भीनी-भीनी तेरे सांसो की महक
मेरी रूह में गुपचुप उतर जाए.

तुम बात समझो या ना समझो...

तुम्हारी कशिश, बन इक चाहत
रोज़, मेरी बगिया महका जाए
बिन परो के ही बन तितली
तेरी प्रीत मैं मन झूम जाए
चुग चुग कर तेरी बाते को
कोयल सा मीठा गीत बन जाए

तुम जानो या ना जानो....

कीर्ती वैद्य ...

3 comments:

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आपने अपने भावों को शब्दों का सुन्दर लिबास पहनाया है, बधाई।

Krishan lal "krishan" said...

तुम रोज़ मिलो या ना मिलो..
भीनी-भीनी तेरे सांसो की महक
मेरी रूह में गुपचुप उतर जाती.

अति सुन्दर कीर्ति जी अति सुन्दर

Anonymous said...

badhiya lagaa keerti
likhti raho