काली उलझी सड़क पे
पक्के सुलझे संवाद थे
धूप - उषण में जले
प्यासे पिघले ख्वाब थे
हवाओ के तूफ़ान में
मन के भीगे भावः थे
शायद मिले फिर वे
सागर सीने में तूफ़ान थे......
कीर्ती वैद्या..... 25th april 2009
अपने आस-पास जो महसूस करती हूँ.....शब्दो में उन्हे बाँध देती हूँ....मुझे लिखने की सारी प्रेणना, मेरे मित्र नितिन से मिलती है.... शुक्रिया नितिन, तुम मेरे साथ हो....
30 April 2009
कहना तो अब भी बहुत है....
वो जला भुझा टुकडा
मुझे घुर रहा था
सब कुछ जल जाने के बाद भी
मासूम बेजुबान मेज पर पड़ा था
पता नहीं हँसू की रोऊँ, तुम्हारी
आँखों की याद दिला रहा था
कहना तो अब भी बहुत है, पर अब
खामोशियों का शहर आबाद था.....
कीर्ती वैद्या ... 27 april 2009
मुझे घुर रहा था
सब कुछ जल जाने के बाद भी
मासूम बेजुबान मेज पर पड़ा था
पता नहीं हँसू की रोऊँ, तुम्हारी
आँखों की याद दिला रहा था
कहना तो अब भी बहुत है, पर अब
खामोशियों का शहर आबाद था.....
कीर्ती वैद्या ... 27 april 2009
25 April 2009
लव सीन
लव सीन बिखरते ही
आंसू टपकते ही....
यारो, इक कश भर लिया
और कुछ तो सूझा नहीं
ढेरो, बेमाना सामान खरीद लिया
उदास मुखड़े की सिलवटो को
विदेशी दारू की बोतल से धो दिया...
अगर अब भी, हम रोते नज़र आये
तो सच समझे ....
हम अपनी ज़िन्दगी को पीछे छोड़े आये
कीर्ती वैदया 24TH APRIL 2009
आंसू टपकते ही....
यारो, इक कश भर लिया
और कुछ तो सूझा नहीं
ढेरो, बेमाना सामान खरीद लिया
उदास मुखड़े की सिलवटो को
विदेशी दारू की बोतल से धो दिया...
अगर अब भी, हम रोते नज़र आये
तो सच समझे ....
हम अपनी ज़िन्दगी को पीछे छोड़े आये
कीर्ती वैदया 24TH APRIL 2009
13 April 2009
इल्जाम
वो टूटे कांच के ग्लास, ना मेरे थे
और ना वो खाली बोतले मेरी...
बस मैंने तो उन्हे, यूँही
होंठो से छू...गले से लगया था...
प्यासे तो दोनों ही थे....
फिर भी सब टूटने का इल्जाम
यूँही मुझपे लगा....
बदनाम भी मै ही रही .. आँसूं भी मेरे ही रहे...
कीर्ती वैद्या ...10 april 2009
और ना वो खाली बोतले मेरी...
बस मैंने तो उन्हे, यूँही
होंठो से छू...गले से लगया था...
प्यासे तो दोनों ही थे....
फिर भी सब टूटने का इल्जाम
यूँही मुझपे लगा....
बदनाम भी मै ही रही .. आँसूं भी मेरे ही रहे...
कीर्ती वैद्या ...10 april 2009
9 April 2009
उम्मीद तो नहीं...
ढ़ाक से झरते सुखी पत्तो सी
इत्-उत् डोलती...मन-मर्ज़ी की
शायद, अच्छी मस्त हूं, अकले ही
उम्मीद तो नहीं...
किसी को पाने-खोने की....
फिर.. शायद हो सकता है,
दोबारा जीने की....
कीर्ती वैद्या .... 09th april 2009
इत्-उत् डोलती...मन-मर्ज़ी की
शायद, अच्छी मस्त हूं, अकले ही
उम्मीद तो नहीं...
किसी को पाने-खोने की....
फिर.. शायद हो सकता है,
दोबारा जीने की....
कीर्ती वैद्या .... 09th april 2009
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