5 January 2009

सुनो..

सुनो, जाना है
सारे बंधन तोड़
नील गगन उड़
अपने को अपने से

कुछ पल ढूँढना
क्यों जीती हूँ, ऐसे
अपने से ही है पूछना
जब ...मिल गई, मैं
चली आउंगी वापिस
फिर तुम्हे, तुमसे पूछने ...

कीर्ती वैद्या 05/01/2009

10 comments:

Vinay said...

आपकी छोटी-सी कविता अच्छी लगी


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चाँद, बादल और शाम
http://prajapativinay.blogspot.com

विजय तिवारी " किसलय " said...

सच तो है,कीर्ति वैद्य जी

आज के भागमभाग भरे जीवन में बदलाव को देखने / समझने की किसे फुर्सत है , लोग अपने - अपने तरीके से अपनी और अपनी संतानों की किस्मत बदलने में ही रात-दिन एक कर रहे हैं
आपका
विजय

Krishan lal "krishan" said...

Hi Keerti Ji
Namaskaar and Happy New Year. AAjkal aap itna kam kyon likhne lage ho. Par jo bhi likhte ho achha likhte ho, ye kavita achhi lage bahut

rajesh singh kshatri said...

kirti ji,
सुनो, जाना है
सारे बंधन तोड़
नील गगन उड़
अपने को अपने से
कुछ पल ढूँढना
क्यों जीती हूँ, ऐसे
अपने से ही है पूछना
जब ...मिल गई, मैं
चली आउंगी वापिस
फिर तुम्हे, तुमसे पूछने ...

kavita me kaphi dard chhupa huwa mahsus ho raha hai. dard ki wajah to aap hi bata sakti hai.

rajesh singh kshatri said...

kirti ji,
सुनो, जाना है
सारे बंधन तोड़
नील गगन उड़
अपने को अपने से
कुछ पल ढूँढना
क्यों जीती हूँ, ऐसे
अपने से ही है पूछना
जब ...मिल गई, मैं
चली आउंगी वापिस
फिर तुम्हे, तुमसे पूछने ...

kavita me kaphi dard chhipa huwa mahsus ho raha hai. dard ki sahi wajah to aap hi bata sakti hai

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

लेकिन क्या........??

सुशील छौक्कर said...

आज चौखर बाली पर जाना हुआ तो वहाँ आपका नाम देखा तो एकदम ख्याल आया अरे यार ये भी तो ब्लोगर है लिखती है पर बहुत दिन से तो इनका लिखा पढा ही नही। कही ऐसा तो नही निगाह ही नही गई हो। इसलिए आपके ब्लोग पर आया तो देखा यहाँ तो आपने काफी दिनों से नही लिखा। वैसे इस पोस्ट पर हर बार की तरह खूब लिखा है।

नील गगन उड़
अपने को अपने से
कुछ पल ढूँढना
क्यों जीती हूँ, ऐसे
अपने से ही है पूछना

यही सोचते सोचते पूरी जिदंग़ी बीत जाती है। गहरी बात लिख दी।

विक्रांत बेशर्मा said...

कीर्ति जी,
बहुत ही सुन्दर कविता लिखी है आपने !!!!!!

मेरी आवाज सुनो said...

Keertiji,aaj achanak aapke blog par pahunch gaya.Aapki "neer bhari dukh ki badri" jaisi kavitaon men kashish hai.Magar aapki kalam poore sawa do maah se khamosh kyun hai .Kabhi mere blog par bhi aaiye.

Vijuy Ronjan said...

Khud ko dhoondhna sabse mushkil kam hai...aapne bahut hi sarthak baat ek khubsoorat kavita ke madhyam se kahi hai...
Badhayee aur holi ki hardik shubhkamnayen.