5 January 2009

शाम...किसी का आना

कविता.. कब की सूख, हवा हो गयी
मानो, पतझड़ के झडे पत्ते, जों कभी
वापिस, शाख पे ना आयेंगे ......
अब, बसंत का भी इंतज़ार ना रहा
और ना बचा अब मौसम, सावन का
फिर क्यों, कोई दस्तक दे रहा ......
कोई तूफ़ान जों, थमा सागर में
जों उफ़न रहा, बेवजह सीने में
जब, खोले अपने बन्ध दरवाजे.....
देखी इक शाम सांवली चुप सी
डूबी हुई अपनी गहरी सोच में
पर अब तृप्त थी, किसी के आ जाने से.........

कीर्ती वैद्या 26.12.2008

4 comments:

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

क्या ये तृप्ति सांवली शाम के आ जाने की थी........??

निर्झर'नीर said...

मीठी-मीठी,
प्यारी-प्यारी
बूंदों में भीगी
नीर बदरा भरी
सुबह मुबारक ....


aapko padhne ka mauka mila khushnasiibiiiiiiii

Unknown said...

well nice poem really very good all are vey nice sab liye 1 comment u r so sweet just like yours poem

devender said...

bhut acha h --bhut acha h really it so nice poem
me bhulna chata hu mgr bhul patt nehi hu ,
rasste to hajro h megr chlu kis pr
smj paat nehi hu,
jin se milti thi mjko smj wo mujse kehi or ja chuke
ab kis baat pe kru yaki ki
wo waps aa sekta h pal
jo haath nikla wo pekd sekta tha
jo jaban se nikla usko kese pekde koi